
रक्षाबन्धन तिथि - निर्णय - रक्षा - बन्धन का पवित्र पर्व भद्रा
रहित अपराह्ण - व्यापिनी श्रावण पूर्णिमा में करने का शास्त्र - विधान है - ' भद्रायां द्वे न कर्त्तव्ये श्रावणी -
फाल्गुनी तथा……..।
यदि सूर्योदय बाद उदयकाल में त्रिमुहूर्त - व्यापिनी पूर्णिमा हो तथा
अपराह्न - काल से पहिले ही समाप्त हो रही हो , तब भी दूसरे दिन
अपराह्न - काल या प्रदोषकाल में रक्षाबन्धन करना चाहिए ।
यदि दूसरे दिन पूर्णिमा त्रिमुहूर्त - व्यापिनी न हो , तब पहिले दिन भद्रा समाप्त होने पर प्रदोष आदि
काल में रक्षाबन्धन करना चाहिए । भद्रा में श्रावणी और फाल्गुनी - दोनों वर्जित
हैं , क्योंकि श्रावणी से राजा का और फाल्गुनी से प्रजा
का अनिष्ट होता है ।
लोकपरम्परा तथा आजकल की व्यस्तताओं के दृष्टिगत पंजाब , दिल्ली , हरियाणा आदि में
अपराह्न - काल से पहिले ही प्रात : काल में रक्षाबन्धन मनाने की परम्परा चल रही है। अतएव आवश्यक परिस्थितिवश यदि भद्राकाल में ही
रक्षाबन्धन आदि शुभ कार्य करना पड़े , तो शास्त्रकारों ने
भद्रा - मुखकाल को छोड़कर भद्रा पुच्छकाल में रक्षाबन्धनादि शुभ कार्य करने की आज्ञा दी है।
भविष्यपुराणानुसार भद्रा के पुच्छकाल में किए गए कृत्य
में सिद्धि एवं विजय प्राप्त होती है , जबकि भद्रा - मुख
में कार्य का नाश होता है। ' पुच्छे जयावहाः , मुखे कार्य विनाशाय ...।'
परिहार - फिर भी , यदि विचार हो तो
कुशा निर्मित भद्रा की मूर्ति , चन्दन का| तिलक लगाकर पुष्प सहित निम्न मन्त्र पढ़कर चलते
पानी में बहा देवें तथा ब्राह्मण को यथाशक्ति वस्त्र , मिष्ठान्न दक्षिणा सहित दान करके शुभ कार्य करें-
मन्त्र-
मन्त्र-
छाया सूर्य सुते देवि विष्टिरिष्टार्थदायिनी ।
पूजितासि यथाशक्त्या भद्रे भद्रप्रदा भाव ।।
इसके अतिरिक्त भद्रा के निम्न द्वादश नामों का पाठ करने से भी ग्रह
अनुकूल फल प्रदान करते हैं तथा कार्यों में विघ्न नहीं होते ।
भद्रा के बारह नाम - 1 . धान्या , 2. दधिमुखी , 3. भद्रा . 4. महामारी , 5. खरानना , 6. कालरात्रि , 7. महारूद्रा , 8. विष्टि , 9. कुलपुत्रिका , 10. भैरवी , 11. महाकाली , 12. असुरक्षयकरी
।
नोट - यह मुहूर्त अल्मोड़ा उत्तराखंड के अनुसार हैं अन्य शहरों में कुछ अंतर हो सकता है-
रक्षा
बन्धन पर राखी बाँधने का शुभ मुहूर्त
रक्षा
बन्धन अनुष्ठान (बाधने) का समय = 09:28 से 21:06
अवधि = 11 घण्टे 37 मिनट्स
रक्षा
बन्धन के लिये अपराह्न का मुहूर्त = 13:38 से 16:18
अवधि
= 2 घण्टे 40 मिनट्स
रक्षा
बन्धन के लिये प्रदोष काल का मुहूर्त = 18:58 से 21:06
अवधि
= 2 घण्टे 7 मिनट्स
भद्रा पूँछ = 05:16 से 06:28
भद्रा
मुख = 06:28 से 08:28
भद्रा
अन्त समय = 09:28
पूर्णिमा
तिथि प्रारम्भ = 2/अगस्त/2020 को 21:28 बजे
पूर्णिमा तिथि समाप्त = 3/अगस्त/2020 को 21:27 बजे
पूर्णिमा तिथि समाप्त = 3/अगस्त/2020 को 21:27 बजे
रक्षासूत्र ( राखी ) बाँधते समय निम्नलिखित मन्त्र पढ़ना चाहिए-
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः । तेन
त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल ।
इसके बाँधने से वर्षभर तक पुत्र - पौत्रादि सहित
सब सुखी रहते हैं ।
कथा - इस पर्व के सन्दर्भ में यह कथा प्रचलित है
प्राचीन काल में एक बार बारह वर्षों तक देवासुर - संग्राम होता रहा , जिसमें देवताओं का पराभव हुआ और असुरों ने स्वर्ग
पर आधिपत्य कर लिया । दु : खी , पराजित और चिन्तित
इन्द्र देवगुरु बृहस्पति के पास गए और कहने लगे कि इस समय न तो मैं यहाँ ही
सुरक्षित हूँ और न ही यहाँ से कहीं निकल ही सकता हूँ । ऐसी दशा में मेरा युद्ध करना हीअनिवार्य है , जबकि अब तक के युद्ध में हमारा पराभव ही हुआ है ।
इस वार्तालाप को इन्द्राणी भी सुन रही थीं । उन्होंने कहा कि कल श्रावण पूर्णिमा
है , मैं विधानपूर्वक रक्षासूत्र तैयार करूँगी , उसे आप स्वस्ति - वाचनपूर्वक ब्राह्मणों बँधवा
लीजिएगा । इससे आप अवश्य विजयी होंगे ।
दूसरे दिन इन्द्र ने रक्षाविधान और स्वस्तिवाचनपूर्वक रक्षाबन्धन
कराया । जिसके प्रभाव से उनकी विजय हुई । तब से यह पर्व मनाया जाने लगा । इस दिन
बहनें भाईयों की कलाई में रक्षासूत्र ( राखी ) बाँधती है ।
श्रावणी उपाकर्म
तिथि - निर्णय - प्रत्येक वेद के अनुयायियों के
उपाकर्मकाल का निर्णय भी भिन्न भिन्न है जो इस प्रकार है-
(I) ऋग्वेदियों
का उपाकर्म - इनके उपाकर्म के
तीन मुख्य काल माने गए | हैं- (1) श्रावण शुक्ल में
श्रवण नक्षत्र , ( 2 ) श्रावण शुक्ल पंचमी , ( 3 ) श्रावण शुक्ल से हस्त नक्षत्र । इनमें श्रवण
नक्षत्र इनके उपाकर्म का मुख्यकाल है ।
कालतत्त्व अनुसार यदि पूर्णिमा तिथि ग्रहण या संक्रान्ति से दूषित हो
जाए तो इसे श्रावण शुक्ल पंचमी अथवा श्रावण शुक्ल में हस्तनक्षत्र में अथवा ग्रहण
/ संक्रान्ति अदूषित श्रावण शुक्ल पंचमीयुक्ता हस्तनक्षत्र में करना चाहिए ।
यदि श्रवण दो दिन हो और यदि पहिले दिन सूर्योदय से प्रवृत्त हुआ श्रवण
दूसरे दिन सूर्योदय के अनन्तर तीन मुहूर्त - व्यापिनी हो , तो उपाकर्म दूसरे दिन ही करना चाहिए । क्योंकि
यहाँ धनिष्ठा नक्षत्र का योग ( सम्पर्क ) श्रेष्ठ माना गया है , परन्तु यदि तीन मुहूर्त से कम हो , तो उपाकर्म पहिले दिन सम्पूर्ण - व्याप्ति श्रवण
- नक्षत्र में ही किया जाता है । यदि पहिले दिन सूर्योदय के समय श्रवण - नक्षत्र न
हो तथा दूसरे दिन सूर्योदय के बाद दो - मुहूर्त भी श्रवण - नक्षत्र हो , तो दूसरे दिन ही उपाकर्म करना होगा क्योंकि
उत्तराषाढ़ा नक्षत्र का वेध निषिद्ध है । परन्तु यदि दूसरे दिन श्रवण दो - मुहूर्त
से भी कम हो , और पहिले दिन उत्तराषाढ़ा से विद्ध हो , तब त्रिमुहूर्त व्यापिनी श्रावण शुक्ल पंचमी या
हस्त नक्षत्र में उपाकर्म करना चाहिए । यदि ये दोनों भी सूर्योदय बाद | त्रिमुहूर्त - व्यापिनी न हो , तब पूर्वविद्धा अर्थात् पहिले दिन उपाकर्म करें ।
यहाँ उपाकर्म का काल पूर्वाह्ण है ।
(II) यजुर्वेदियों का उपाकर्म - सभी यजुर्वेदियों के उपाकर्म के तीन काल हैं- (1) श्रावण पूर्णिमा , (2) श्रावण
शुक्ल पंचमी , (3) श्रावण शुक्ल में हस्त नक्षत्र । इनमें श्रावण
पूर्णिमा ही मुख्य उपाकर्म का समय है ।
यदि पूर्णिमा खण्डित हो तथा पहिले दिन पूर्णिमा कुछ मुहूर्त के अनन्तर
प्रारम्भ हुई हो और दूसरे दिन छ : मुहूर्त्तव्यापिनी हो तो सम्पूर्ण यजुर्वेदियों
के उपाकर्म दूसरे दिन ही होगा । यदि पूर्णिमा शुद्ध एवं अधिक अर्थात्
षष्टिघट्यात्मक ( ६० घड़ी होकर दूसरे दिन छः मुहूर्त न्यून हो , तो भी सभी यजुर्वेदियों का उपाकर्म पहिले दिन ( ६० घड़ी ) होगा । यदि पहिले दिन
पूर्णिमा कुछ मुहूर्त के अनन्तर प्रारम्भ ( प्रवृत्त ) हो और दूसरे दिन दो या तीन
मुहूर्त से अधिक परन्तु छः मुहूर्त से कम हो , तो
तैत्तिरीय ( कृष्ण यजुर्वेदि ) दूसरे दिन ही उपाकर्म करें तथा शेष शुक्ल यजुर्वेदि
पहिले दिन उपाकर्म करें । एवं च , यदि
पहिले दिन पूर्णिमा कुछ मुहूर्त के अनन्तर प्रवृत्त ( प्रारम्भ ) होकर दूसरे दिन
दो मुहूर्त से कम हो अथवा क्षय हो , तो
सम्पूर्ण यजुर्वेदियों का उपाकर्म पहले दिन ही होगा ।
पूर्णिमा के संक्रान्ति अथवा ग्रहण से दूषित
होने की स्थिति में यजुर्वेदियों का उपाकर्म भी ऋग्वेदियों की भान्ति श्रावण शुक्ल
पंचमी या हस्त नक्षत्र अथवा संक्रान्ति / ग्रहण से अदूषित श्रावण शुक्ल पंचमी युता
हस्त नक्षत्र में किया जाता है ।
(III) सामवेदियों का उपाकर्म - इनका उपाकर्म भाद्र शुक्ल में हस्त
नक्षत्र के समय किया जाता है ।
उपाकर्म की परिभाषा एवं
माहात्म्य -
श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को वेदपरायण के शुभ कृत्यारम्भ को उपाकर्म कहते हैं । इस
दिन यज्ञोपवीत के पूजन का भी विधान है । ऋषि -पूजन तथा पुराने यज्ञोपवीत को उतारकर
नए यज्ञोपवीत को धारण करना पर्व का विशेष कृत्य है । प्राचीन समय में यह कर्म गुरु
अपने शिष्यों के साथ किया करते थे । श्रावणी विशेषकर ब्राह्मणों अथवा गुरु - शिष्य
परम्परा का पर्व है । मनुस्मृति में मनु महाराज ने ब्राह्मण के लिए विधान किया है-
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा ।
दानं प्रतिग्रहं चैव
ब्राह्मणानामकल्पयत् ।। ( १/८८ )
पढ़ना - पढ़ाना , यज्ञ करना - कराना , दान
देना - लेना - ' यह ब्राह्मण का कर्तव्य है । ' यह उत्सव ब्राह्मणों के वेदाध्ययन और
आश्रमों के उस पवित्र जीवन का स्मारक है । अतः इसकी रक्षा ही नहीं , अपितु इसे यथार्थरूप में मनाना हमारा
परम धर्म होना चाहिए । गृहसूत्रों के आधार पर परिपाटी है कि प्रत्येक उत्तम यज्ञ -
याग आदि के समय ऋषि - पूजन तथा पुराने यज्ञोपवीत को उतारकर नया यज्ञोपवीत धारण
करना चाहिए । यज्ञोपवीत के तीन सूत्र पितृ - ऋण , देव ऋण और ऋषि - ऋण आदि कर्त्तव्यों का बोध कराते हैं । इस उपाकर्म
में सर्वप्रथम देव - ऋषि ,
पितृ एवं तीर्थों की प्रार्थना के
अनन्तर वर्षभर के जाने - अनजाने में हुए पापों के निराकरण हेतु प्रायश्चित रूप में
' हेमाद्रि स्नान ' संकल्प करके दशविध स्नान करने का विधान
है । इसके अनन्तर ऋषिपूजन ,
सूर्योपस्थान , यज्ञोपवीत पूजन तथा फिर नवीन यज्ञोपवीत
धारण करने का विधान है । श्रावणी - पर्व से ही गुरु निर्देशानुसार ऋक् , यजु , साम एवं अथर्ववेदों का स्वाध्याय प्रारम्भ करने का प्रचलन रहा है ।
अतः अपनी संस्कृति को स्मरण करते हुए स्वाध्याय को अपने जीवन का अभिन्न अङ्ग बनाने
में तत्पर रहना चाहिए ।
श्रावण पूर्णिमा रक्षाबंधन
के दिन जनेऊ यज्ञोपवीत संस्कार कराने का बहुत बड़ा महत्व है जब कोई भी शुभ मुहूर्त
ना मिल रहा हो तो श्रावण पूर्णिमा रक्षाबंधन के दिन जनेऊ यज्ञोपवीत संस्कार कराना चाहिए
गुरूकुल संस्कृत महाविद्यालयों, तीर्थों में इसी दिन बहुत बड़ी संख्या में यज्ञोपवीत संस्कार संपन्न
किया जाता है| जो लोकाचार्य भी मान्य है |
आचार्य दिनेश पाण्डेय
आचार्य दिनेश पाण्डेय
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