बसंत पंचमी पर्व मुहूर्त एवं कथा

वसंत पञ्चमी या श्रीपंचमी हिन्दू त्यौहार है। इस दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। यह पूजा पूर्वी भारत, पश्चिमोत्तर बांग्लादेश, नेपाल और कई राष्ट्रों में बड़े उल्लास से मनायी जाती है। इस दिन पीले वस्त्र धारण करते हैं।
इस वर्ष वसंत पंचमी 16 फरवरी 2021 को सुबह 03 बजकर 36 मिनट पर पंचमी तिथि लगेगी, जो कि अगले दिन यानी 17 फरवरी को सुबह 5 बजकर 45 मिनट पर समाप्त होगी। ऐसे
में पंचमी तिथि 16 फरवरी को पूरे दिन रहेगी। बसंत पंचमी के दिन अबूझ मुहूर्त
होता है। इस दिन किसी भी कार्य को करने के लिए मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं होती
है। बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती की विधि-विधान से पूजा की जाती है।
वसन्त पञ्चमी सरस्वती पूजा मुहूर्त
06:50 AM से 12:26 PM तक
अवधि - 05 घण्टे 36 मिनट्स
वसन्त पञ्चमी मध्याह्न का क्षण - 12:26 PM
पञ्चमी तिथि प्रारम्भ -
16 फरवरी को 03:36 AM बजे
पञ्चमी तिथि समाप्त -
17 फरवरी को 05:45 AM बजे
बसंत पंचमी पूजा विधि-
·
मां सरस्वती की प्रतिमा या मूर्ति को पीले
रंग के वस्त्र अर्पित करें।
·
अब रोली, चंदन,
हल्दी, केसर, चंदन,
पीले या सफेद रंग के पुष्प, पीली मिठाई
और अक्षत अर्पित करें।
·
अब पूजा के स्थान पर वाद्य यंत्र और
किताबों को अर्पित करें।
·
मां सरस्वती को पूजा के दौरान पीली
वस्तुएं अर्पित करनी चाहिए। जैसे पीले चावल, बेसन का लड्डू आदि।
·
सरस्वती पूजा में पेन, किताब, पेसिंल आदि को जरूर शामिल करना चाहिए
और इनकी पूजा करनी चाहिए।
·
बसंत पंचमी के दिन लहसुन, प्याज से बनी चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए।
प्राचीन
भारत और नेपाल में पूरे साल को जिन छह मौसमों में बाँटा जाता था उनमें वसंत लोगों
का सबसे मनचाहा मौसम था। जब फूलों पर बहार आ जाती, खेतों
में सरसों का फूल मानो सोना चमकने लगता, जौ और गेहूँ की
बालियाँ खिलने लगतीं, आमों के पेड़ों पर मांजर आ जाता और
हर तरफ़ रंग-बिरंगी तितलियाँ मँडराने लगतीं। भर भर भंवरे भंवराने लगते। वसंत ऋतु
का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पाँचवे दिन एक बड़ा जश्न मनाया जाता था जिसमें
विष्णु और कामदेव की पूजा होती हैं। यह वसंत पंचमी का त्यौहार कहलाता था।
शास्त्रों में बसंत पंचमी को ऋषि पंचमी से उल्लेखित किया गया है, तो पुराणों-शास्त्रों तथा अनेक काव्यग्रंथों में भी अलग-अलग ढंग से
इसका चित्रण मिलता है।
बसंत पंचमी कथा
उपनिषदों
की कथा के अनुसार सृष्टि के प्रारंभिक काल में भगवान शिव की आज्ञा से भगवान
ब्रह्मा ने जीवों, खासतौर पर मनुष्य योनि की
रचना की। लेकिन अपनी सर्जना से वे संतुष्ट नहीं थे, उन्हें
लगता था कि कुछ कमी रह गई है जिसके कारण चारों ओर मौन छाया रहता है।
तब
ब्रह्मा जी ने इस समस्या के निवारण के लिए अपने कमण्डल से जल अपने हथेली में लेकर
संकल्प स्वरूप उस जल को छिड़कर भगवान श्री विष्णु की स्तुति करनी आरम्भ की।
ब्रम्हा जी के किये स्तुति को सुन कर भगवान विष्णु तत्काल ही उनके सम्मुख प्रकट हो
गए और उनकी समस्या जानकर भगवान विष्णु ने आदिशक्ति दुर्गा माता का आव्हान किया।
विष्णु जी के द्वारा आव्हान होने के कारण भगवती दुर्गा वहां तुरंत ही प्रकट हो
गयीं तब ब्रम्हा एवं विष्णु जी ने उन्हें इस संकट को दूर करने का निवेदन किया।
ब्रम्हा जी तथा विष्णु जी बातों को सुनने के बाद उसी क्षण आदिशक्ति दुर्गा माता के शरीर से स्वेत रंग का एक भारी तेज उत्पन्न हुआ जो एक दिव्य नारी के रूप में बदल गया। यह स्वरूप एक चतुर्भुजी सुंदर स्त्री का था जिनके एक हाथ में वीणा तथा दूसरा हाथ में वर मुद्रा थे । अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला थी। आदिशक्ति श्री दुर्गा के शरीर से उत्पन्न तेज से प्रकट होते ही उन देवी ने वीणा का मधुरनाद किया जिससे संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन चलने से सरसराहट होने लगी। तब सभी देवताओं ने शब्द और रस का संचार कर देने वाली उन देवी को वाणी की अधिष्ठात्री देवी "सरस्वती" कहा।
फिर
आदिशक्ति भगवती दुर्गा ने ब्रम्हा जी से कहा कि मेरे तेज से उत्पन्न हुई ये देवी
सरस्वती आपकी पत्नी बनेंगी, जैसे लक्ष्मी श्री
विष्णु की शक्ति हैं, पार्वती महादेव शिव की शक्ति हैं
उसी प्रकार ये सरस्वती देवी ही आपकी शक्ति होंगी। ऐसा कह कर आदिशक्ति श्री दुर्गा
सब देवताओं के देखते - देखते वहीं अंतर्धान हो गयीं। इसके बाद सभी देवता सृष्टि के
संचालन में संलग्न हो गए।[5]
सरस्वती
को वागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों
से पूजा जाता है। ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के
कारण ये संगीत की देवी भी हैं। बसन्त पंचमी के दिन को इनके प्रकटोत्सव के रूप में
भी मनाते हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-
प्रणो
देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।
अर्थात
ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है
उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है।
पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने सरस्वती से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया था कि
वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जाएगी और तभी से इस वरदान के फलस्वरूप
भारत देश में वसंत पंचमी के दिन विद्या की देवी सरस्वती की भी पूजा होने लगी जो कि
आज तक जारी है।
पतंगबाज़ी
का वसंत से कोई सीधा संबंध नहीं है। लेकिन पतंग उड़ाने का रिवाज़ हज़ारों साल पहले
चीन में शुरू हुआ और फिर कोरिया और जापान के रास्ते होता हुआ भारत पहुँचा।
पौराणिक महत्व
इसके साथ
ही यह पर्व हमें अतीत की अनेक प्रेरक घटनाओं की भी याद दिलाता है। सर्वप्रथम तो यह
हमें त्रेता युग से जोड़ती है। रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज
में दक्षिण की ओर बढ़े। इसमें जिन स्थानों पर वे गये, उनमें दण्डकारण्य भी था। यहीं शबरी नामक भीलनी रहती थी। जब राम उसकी
कुटिया में पधारे, तो वह सुध-बुध खो बैठी और चख-चखकर मीठे
बेर राम जी को खिलाने लगी। प्रेम में पगे जूठे बेरों वाली इस घटना को रामकथा के
सभी गायकों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया।
दंडकारण्य
का वह क्षेत्र इन दिनों गुजरात और मध्य प्रदेश में फैला है। गुजरात के डांग जिले
में वह स्थान है जहां शबरी मां का आश्रम था। वसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां
आये थे। उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रध्दा है कि श्रीराम आकर यहीं बैठे थे। वहां
शबरी माता का मंदिर भी है।





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