
महाप्रलयकालमें केवल सद्ब्रह्मकी सत्ताका प्रतिपादन , उस निर्गुण निराकार ब्रह्मसे ईश्वरमूर्ति ( सदाशिव ) -का प्राकट्य , सदाशिवद्वारा स्वरूपभूता शक्ति ( अम्बिका ) -का प्रकटीकरण , उन दोनोंके द्वारा उत्तम क्षेत्र ( काशी या आनन्दवन ) -का प्रादुर्भाव , शिवके वामांगसे परम पुरुष ( विष्णु ) -का आविर्भाव तथा उनके सकाशसे प्राकृत तत्त्वोंकी क्रमशः उत्पत्तिका वर्णन
ब्रह्माजीने कहा - ब्रह्मन् ! देवशिरोमणे तुम सदा समस्त जगत्के उपकारमें लगे रहते हो । तुमने लोगोंके हितकी कामनासे यह बहुत उत्तम बात पूछी जिसके सुननेसे सम्पूर्ण लोकोंके समस्त पापोंका क्षय हो जाता है , उस अनामय शिवतत्त्वका मैं तुमसे वर्णन करता हूँ ।
शिवतत्त्वका स्वरूप बड़ा ही उत्कृष्ट और अद्भुत है । जिस समय समस्त चराचर जगत् नष्ट हो गया था , सर्वत्र केवल अन्धकार - ही - अन्धकार था । न सूर्य दिखायी देते थे न चन्द्रमा । अन्यान्य ग्रहों और नक्षत्रोंका भी पता नहीं था । न दिन होता था न रात ; अग्नि , पृथ्वी , वायु और जलकी भी सत्ता नहीं थी । प्रधान तत्त्व ( अव्याकृत प्रकृति ) -से रहित सूना आकाशमात्र शेष था , दूसरे किसी तेजकी उपलब्धि नहीं होती थी । अदृष्ट आदिका भी अस्तित्व नहीं था शब्द और स्पर्श भी साथ छोड़ चुके । गन्ध और रूपकी भी अभिव्यक्ति नहीं होती थी । रसका भी अभाव हो गया था । दिशाओंका भी भान नहीं होता था ।
इस प्रकार सब ओर निरन्तर सूचीभेद्य घोर अन्धकार फैला हुआ । उस समय ' तत्सद्ब्रह्म ' इस श्रुतिमें ' सत् ' सुना जाता है , एकमात्र वही शेष था । जब ' यह ' , ' वह ' , ' ऐसा ' , ' जो ' इत्यादि रूपसे निर्दिष्ट होनेवाला भावाभावात्मक जगत् नहीं था , समय एकमात्र वह ' सत् ' ही शेष था , जिसे योगीजन अपने हृदयाकाशके उस भीतर निरन्तर देखते हैं । वह सत्तत्त्व मनका विषय नहीं है । वाणीकी भी वहाँतक कभी पहुँच नहीं होती । वह नाम तथा रूप - रंगसे भी शून्य है । वह न स्थूल है न कृश , न ह्रस्व है न दीर्घ तथा न लघु है गुरु । उसमें न कभी वृद्धि होती है न ह्रास । श्रुति भी उसके विषयमें चकितभावसे ' है ' इतना ही कहती हैं , अर्थात् उसकी सत्तामात्रका निरूपण कर पाती है , उसका कोई विशेष विवरण देनेमें असमर्थ हो जाती है । वह सत्य , ज्ञानस्वरूप , अनन्त , परमानन्दमय परम ज्योतिःस्वरूप , अप्रमेय , आधाररहित निर्विकार , निराकार , निर्गुण , योगिगम्य सर्वव्यापी , सबका एकमात्र कारण निर्विकल्प , निरारम्भ , मायाशून्य , उपद्रव- रहित , अद्वितीय , अनादि , अनन्त , संकोच- विकाससे शून्य तथा चिन्मय है ।
जिस परब्रह्मके विषयमें ज्ञान और अज्ञानसे पूर्ण उक्तियोंद्वारा इस प्रकार ( ऊपर बताये अनुसार ) विकल्प किये जाते उसने कुछ कालके बाद ( सृष्टिका समय आनेपर ) द्वितीयकी इच्छा प्रकट की- उसके भीतर एकसे अनेक होनेका संकल्प उदित हुआ । तब उस निराकार परमात्माने अपनी लीलाशक्तिसे अपने लिये मूर्ति ( आकार - की कल्पना की । वह मूर्ति सम्पूर्ण ऐश्वर्य - गुणोंसे सम्पन्न , सर्वज्ञानमयी , शुभ- स्वरूपा , सर्वव्यापिनी , सर्वरूपा , सर्वदर्शिनी सर्वकारिणी , सबकी एकमात्र वन्दनीया सर्वाद्या , सब कुछ देनेवाली और सम्पूर्ण संस्कृतियोंका केन्द्र थी । उस शुद्धरूपिणी ईश्वर - मूर्तिकी कल्पना करके वह अद्वितीय अनादि , अनन्त , सर्वप्रकाशक , चिन्मय सर्वव्यापी और अविनाशी परब्रह्म अन्तर्हित हो गया । जो मूर्तिरहित परम ब्रह्म है , उसीकी मूर्ति ( चिन्मय आकार ) भगवान् सदाशिव हैं । अर्वाचीन और प्राचीन विद्वान् उन्हींको ईश्वर कहते हैं । उस समय एकाकी रहकर स्वेच्छानुसार विहार करनेवाले उन सदाशिवने अपने विग्रहसे स्वयं ही एक स्वरूपभूता शक्तिकी सृष्टि की , जो उनके अपने श्रीअंगसे कभी अलग होनेवाली नहीं थी । उस पराशक्तिको प्रधान , प्रकृति , गुणवती , माया बुद्धितत्त्वकी जननी तथा विकाररहित बताया गया है । वह शक्ति अम्बिका कही गयी है । उसीको प्रकृति , सर्वेश्वरी , त्रिदेवजननी , नित्या और मूलकारण भी कहते हैं ।
सदाशिवद्वारा प्रकट की गयी उस शक्तिके आठ भुजाएँ हैं । उस शुभलक्षणा देवीके मुखकी शोभा विचित्र है । वह अकेली ही अपने मुखमण्डलमें सदा एक सहस्त्र चन्द्रमाओंकी कान्ति धारण करती है । नाना प्रकारके आभूषण उसके श्रीअंगोंकी शोभा बढ़ाते हैं । वह देवी नाना प्रकारकी गतियोंसे सम्पन्न है और अनेक प्रकारके अस्त्र - शस्त्र धारण करती है । उसके खुले हुए नेत्र खिले हुए कमलके समान जान पड़ते हैं । वह अचिन्त्य तेजसे जगमगाती है । वह सबकी योनि है और सदा उद्यमशील रहती है । एकाकिनी होनेपर भी वह माया संयोगवशात् अनेक हो जाती है । वे जो सदाशिव हैं , उन्हें परमपुरुष ईश्वर , शिव , शम्भु और महेश्वर कहते हैं वे अपने मस्तकपर आकाश - गंगाको धारण करते हैं । उनके भालदेशमें चन्द्रमा शोभा पाते हैं । उनके पाँच मुख हैं और प्रत्येक मुखमें तीन - तीन नेत्र हैं । उनका चित्त सदा प्रसन्न रहता है । वे दस भुजाओंसे युक्त और त्रिशूलधारी हैं । उनके श्रीअंगोंकी प्रभा कपूरके समान श्वेत - गौर है । वे अपने सारे अंगोमें भस्म रमाये रहते हैं । उन कालरूपी ब्रहाने एक ही समय शक्तिके नाथ शिवलोक नामक क्षेत्रका निर्माण किया था । उस उत्तम क्षेत्रको ही काशी कहते हैं । वह परम निर्वाण या मोक्षका स्थान है , जो सबके अपर विराजमान है । वे प्रिया - प्रियतमरूप शक्ति और शिव , जो परमानन्दस्वरूप उस मनोरम क्षेत्रमें नित्य निवास करते काशीपुरी परमानन्दरूपिणी है । मुने ! शिव और शिवाने प्रलयकालमें भी कभी क्षेत्रको अपने सांनिध्यसे मुक्त नहीं किया है । इसलिये विद्वान् पुरुष उसे ' अविमुक्त क्षेत्र ' के नामसे भी जानते हैं । वह क्षेत्र आनन्दका हेतु है । इसलिये पिनाकधारी शिवने पहले उसका नाम ' आनन्दवन ' रखा था । उसके बाद वह ' अविमुक्त ' के नामसे प्रसिद्ध हुआ ।
देवर्षे ! एक समय उस आनन्दवनमें हुए शिवा और शिवके मनमें यह इच्छा हुई कि किसी दूसरे पुरुषकी भी सृष्टि करनी चाहिये , जिसपर यह सृष्टि - संचालनका महान् भार रखकर हम दोनों केवल काशीमें रहकर इच्छानुसार विचरें और निर्वाण धारण करें वही पुरुष हमारे अनुग्रहसे सदा सबकी सृष्टि करे , पालन करे और वही अन्तमें सबका संहार भी करे । यह चित्त एक समुद्रके समान इसमें चिन्ताकी उत्ताल तरंगें उठ - उठकर इसे चंचल बनाये रहती हैं । इसमें सत्त्वगुणरूपी रत्न , तमो- गुणरूपी ग्राह और रजोगुणरूपी मूंगे भरे रमण करते हुए हैं । इस विशाल चित्त - समुद्रको संकुचित करके हम दोनों उस पुरुषके प्रसादसे आनन्दकानन ( काशी ) में पूर्वक निवास करें । यह आनन्दवन वह सुख स्थान है , जहाँ हमारी मनोवृत्ति सब ओरसे सिमिटकर इसीमें लगी हुई है तथा जिसके बाहरका जगत् चिन्तासे आतुर प्रतीत होता । ऐसा निश्चय करके शक्तिसहित सर्वव्यापी परमेश्वर शिवने अपने वामभागके दसवें अंगपर अमृत मल दिया । फिर तो वहाँसे एक पुरुष प्रकट हुआ , जो तीनों लोकोंमें सबसे अधिक सुन्दर था । वह शान्त था । उसमें सत्त्वगुणकी अधिकता थी तथा वह गम्भीरताका अथाह सागर था ।
मुने ! क्षमा नामक गुणसे युक्त उस पुरुषके लिये ढूँढ़नेपर भी कहीं कोई उपमा नहीं मिलती थी । उसकी कान्ति इन्द्रनील मणिके समान श्याम थी । उसके अंग - अंगसे दिव्य शोभा छिटक रही थी और नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान शोभा पा रहे थे । श्रीअंगोंपर सुवर्णकी- सी कान्तिवाले दो सुन्दर रेशमी पीताम्बर शोभा दे रहे थे । किसीसे भी पराजित होनेवाला वह वीर पुरुष अपने प्रचण्ड भुजदण्डोंसे सुशोभित हो रहा था तदनन्तर उस पुरुषने परमेश्वर शिवको प्रणाम करके कहा - ' स्वामिन् ! मेरे नाम निश्चित कीजिये और काम बताइये उस पुरुषकी यह बात सुनकर महेश्वर भगवान् शंकर हँसते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीमें उससे बोले शिवने कहा - वत्स ! व्यापक होनेके कारण तुम्हारा विष्णु नाम विख्यात हुआ इसके सिवा और भी बहुत - से नाम होंगे जो भक्तोंको सुख देनेवाले होंगे । तुम सुस्थिर उत्तम तप करो ; क्योंकि वहीं समस्त कार्योका साधन है । ऐसा कहकर भगवान् शिवने श्वास- मार्गसे श्रीविष्णुको वेदोंका ज्ञान प्रदान किया । तदनन्तर अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले श्रीहरि भगवान् शिवको प्रणाम करके बड़ी भारी तपस्या करने लगे और शक्तिसहित परमेश्वर शिव भी पार्षदगणोंके साथ वहाँसे अदृश्य हो गये । भगवान् विष्णुने सुदीर्घ कालतक बड़ी कठोर तपस्या की ।
तपस्याके परिश्रमसे युक्त भगवान् विष्णुके अंगोंसे नाना स्वयं उस प्रकारकी जलधाराएँ निकलने लगीं । यह सब भगवान् शिवकी मायासे ही सम्भव हुआ । महामुने ! उस जलसे सारा आकाश व्याप्त हो गया । वह ब्रह्मरूप जल अपने स्पर्शमात्रसे सब पापोंका नाश करनेवाला सिद्ध हुआ । उस समय थके हुए परम पुरुष विष्णुने जलमें शयन किया । वे दीर्घकालतक बड़ी प्रसन्नताके साथ उसमें रहे । नार अर्थात् जलमें शयन करनेके कारण ही उनका ' नारायण ' यह श्रुतिसम्मत नाम प्रसिद्ध हुआ । उस समय उन परम पुरुष नारायणके सिवा दूसरी कोई प्राकृत वस्तु नहीं थी । उसके बाद ही उन महात्मा नारायणदेवसे यथासमय सभी तत्त्व प्रकट हुए । महामते ! विद्वन् ! मैं उन तत्त्वोंकी उत्पत्तिका प्रकार बता रहा हूँ । सुनो , प्रकृतिसे महत्तत्त्व प्रकट हुआ और महत्तत्त्वसे तीनों गुण । इन गुणोंके भेदसे ही त्रिविध अहंकारकी उत्पत्ति हुई । अहंकारसे पाँच तन्मात्राएँ हुईं और उन तन्मात्राओंसे पाँच भूत प्रकट हुए । उसी समय ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियोंका भी प्रादुर्भाव हुआ । मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार मैंने तुम्हें तत्त्वोंकी संख्या बतायी है । इनमेंसे पुरुषको छोड़कर शेष सारे तत्त्व प्रकृतिसे प्रकट हुए हैं , इसलिये सब - के - सब जड हैं । तत्त्वोंकी संख्या चौबीस है । उस समय एकाकार हुए चौबीस तत्त्वोंको ग्रहण करके वे परम पुरुष नारायण भगवान् शिवकी इच्छासे ब्रह्मरूप जलमें सो गये । (अध्याय ६)





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