फूलदेई त्यौहार 14 मार्च 2024
फूलदेई भारत के उत्तराखण्ड राज्य का एक स्थानीय त्यौहार है जो चैत्र माह के आगमन पर मनाया जाता है सम्पूर्ण उत्तराखंड में इस चैत्र महीने के प्रारम्भ होते ही अनेक पुष्प खिल जाते हैं जिनमें फ्यूंली, लाई, ग्वीर्याल, किनगोड़, हिसर, बुराँस आदि प्रमुख हैं। चैत्र की पहले गते को छोटे-छोटे बच्चे हाथों में कैंणी (बारीक बांस की बनी टोकरी) लेकर प्रातः काल से अपने खेतों में या आँगन में जाकर फूलों को एकत्र करते हैं अनन्तर सर्वप्रथम गाँव के मंदिर की देहली पर फूल श्रध्दा के साथ चढ़ाए जाते हैं तत्पश्चात अपने घरों की सभी देहलियों पर इन पुष्पों को चढ़ाया जाता है।
इसे गढ्वाल मे घोघा कहा जाता है पहाड के लोगों का जीवन प्रकृति पर बहुत निर्भर होता है इसलिये इनके त्यौहार किसी न किसी रुप में प्रकृति से जुड़े होते हैं प्रकृति ने जो उपहार उन्हें दिया है उसे वरदान के रूप मे स्वीकर करते है और उसके प्रति आभार वे अपने लोक त्यौहारों के माध्यम से प्रकट करते है।
इसे गढ्वाल मे घोघा कहा जाता है पहाड के लोगों का जीवन प्रकृति पर बहुत निर्भर होता है इसलिये इनके त्यौहार किसी न किसी रुप में प्रकृति से जुड़े होते हैं प्रकृति ने जो उपहार उन्हें दिया है उसे वरदान के रूप मे स्वीकर करते है और उसके प्रति आभार वे अपने लोक त्यौहारों के माध्यम से प्रकट करते है।
फूलदेई लोकपर्व
चैत के महीने की संक्रांति को जब ऊंची पहाड़ियों से बर्फ पिघल जाती है सर्दियों के मुश्किल दिन बीत जाते हैं उत्तराखंड के पहाड़ बुरांश के लाल फूलों की चादर ओढ़ने लगते हैं तब पूरे इलाके की खुशहाली के लिए फूलदेई का त्यौहार मनाया जाता है। यह त्यौहार आमतौर पर किशोरी लड़कियों और छोटे बच्चों का पर्व है।
फूल और चावलों को गांव के घर की देहली यानी मुख्यद्वार पर डालकर बच्चें उस घर की खुशहाली की दुआ मांगती हैं। इस दौरान एक गाना भी गाया जाता है-
फूल देई, छम्मा देई,
देणी द्वार, भर भकार,ये देली स बारम्बार नमस्कार,
फूले द्वार……फूल देई-छ्म्मा देई.
फूलदेई त्यौहार का संबंध भी प्रकृति के साथ जुडा है यह बसंत ऋतु के स्वागत का प्रतीक है बसंत ऋतु में चारो और रंग बिरंगे फूल खिल जाते है बसन्त के आगमन से पूरा पहाड़ बुरांस और की लालिमा और गांव आडू, खुबानी के गुलाबी-सफेद रंगो से भर जाता है फिर चैत्र महीने के पहले दिन इतने सुंदर उपहार देंने के लिये गांव के सारे बच्चों के माध्यम से प्रकृति मां का धन्यवाद अदा किया जाता है इस दिन छोटे बच्चे खासकर लड़कियां सुबह ही उठकर जंगलों की ओर चले जाते हैं और वहां से प्योली/फ्यूंली, बुरांस, बासिंग आदि जंगली फूलो के अलावा आडू, खुबानी, पुलम के फूलों को चुनकर लाते हैं फिर बच्चे एक थाली या बास की टोकरी में चावल, गुड़ खेतों और जंगल से तोड़ कर लाये ताजे फूलों को सजाकर बच्चे बारी-बारी से मंदिर - गांव मे घर-घर जाते है और हर घर की देहरी पर फूल डालते है हुए यह गीत गाते है :-
फूल देई, छम्मा देई,
देणी द्वार, भर भकार,
ये देली स बारम्बार नमस्कार,
फूले द्वार……फूल देई-छ्म्मा देई.
फूल देई, छम्मा देई,
देणी द्वार, भर भकार,
ये देली स बारम्बार नमस्कार,
फूले द्वार……फूल देई-छ्म्मा देई.
गडवाल में इस दिन घोघा देवता की पूजा की जाती है और फूलों की थाली और डलिया लेकर बच्चो की टोली पूरे गांव मे घर-घर जाती है और हर घर की देहरी पर फूल डालते है वे घर की समृद्धि के लिए अपनी शुभकामनाएं देते हैं ये फूल अच्छे भाग्य के संकेत माने जाते हैं महिलाए घर आये बच्चों का स्वागत करती है उन्हे उपहार मे चावल, गुड़, और कुछ पैसे और आशीर्वाद देते है इस तरह से यह त्यौहार आठ दिन तक चलता है आठ्वें दिन सारे बच्चे किसी एक घर या किसी सामुहिक स्थान पर उपहार मे मिले गुड़ चावल दाल आदि से हलवा और अन्य पारम्परिक व्यंजन बनाते है इसमे बडे लोग भी उनकी मदद करते है इस प्रसाद से सबसे पहले देवता को चढाया जाता है बाद में सभी को बाटा जाता है बच्चे बडे स्वाद से ये पकवान खाते हैं और सब गांव वालों को खिलाते है।
आचार्य दिनेश पाण्डेय शास्त्री (मुम्बई & उत्तराखण्ड)
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