प्रदोष व्रत (कथा) 4 जून 2024
प्रदोष व्रत कलियुग में अति मंगलकारी और शिव कृपा प्रदान करनेवाला होता है। असंभव को संभव में बदल देता है यह प्रदोष व्रत अत: शिव भक्तों को यह व्रत अवश्य करना चाहिए। माह की त्रयोदशी तिथि में सायं काल को प्रदोष काल कहा जाता है। मान्यता है कि प्रदोष के समय महादेव कैलाश पर्वत के रजत भवन में इस समय नृत्य करते हैं और देवता उनके गुणों का स्तवन करते हैं। जो भी लोग अपना कल्याण चाहते हों यह व्रत रख सकते हैं। प्रदोष व्रत को करने से हर प्रकार का दोष मिट जाता है।
प्रदोष व्रत कथा
पूर्वकाल में एक पुत्रवती ब्राह्मणी थी। उसके दो पुत्र थे। वह ब्राह्मणी बहुत निर्धन थी। दैवयोग से उसे एक दिन महर्षि शाण्डिल्य के दर्शन हुए । महर्षि के मुख से प्रदोष व्रत में शिव पूजन की महिमा सुनकर उस ब्राह्मणी ने ऋषि से पूजन की विधि पूछी । उसकी बढ़ा और आग्रह से ऋषि ने उस ब्राह्मणी को शिव पूजन का उपर्युक्त विधान बतलाया और उस ब्राह्मणी से कहा- तुम अपने दोनों पुत्रों से शिव की पूजा कराओ । इस व्रत के प्रभाव से तुम्हें एक वर्ष के पश्चात् पूर्ण सिद्धि प्राप्त होगी।
उस ब्राह्मणी ने महर्षि के वचन सुनकर उन बातकों के निस्तक होकर पुनि के चरणों में प्रणाम किया और बोली - है ब्राह्मण आज में आपके दर्शन से धन्य हो गई हूँ । मेरे ये दोनों कुमार आपकी शरण में हैं । यह शुषिव्रत मेरा पुत्र है और यह राजसुत मेरा धर्मपुत्र है । ये दोनों बालक आपके सेवक हैं आप मेरा उद्धार कीजिए । ' उस ब्राह्मणी को शरणागत जानकर मुनि ने मथुर वचनों द्वारा दोनों कुमारों को शिवजी की आराधना विधि बताई । तदनन्तर वे दोनों बालक और ब्राह्मणी मुनि को प्रणाम कर शिव मन्दिर में चले गए । उस दिन से वे दोनों बालक मुनि के कथनानुसार नियमपूर्वक प्रदोष काल में शिवजी की आराधना करने लगे । पूजा करते हुए उन दोनों को चार महीने बीत गए एक दिन राजसुत की अनुपस्थिति में शुचिव्रत स्नान करने नदी किनारे चला गया और वहाँ जल - क्रीड़ा करने लगा।
संयोग से उसी समय उसे नदी की दरार में चमकता हुआ पन का बड़ा कलश भी दिखाई पड़ा उस धनपूरित कलश को देखकर शुचिव्रत बहुत ही प्रसन्न हुआ उस कलश को वह सिर पर रख कर घर ले आया । कलश को भूमि पर रखकर वह अपनी माता से बोला है माता , किजी की महिमा तो देखो । भगवान ने इस बड़े के रूप में मुझे अपार सम्पत्ति दी है । " उसकी माता पड़े को देखकर आश्चर्य करने लगी और रात को बुलाकर कहा- ' बेटे मेरी बात सुनो तुम दोनों इस धन को आपस में आधा - आया बांटतो । माता की बात सुनकर शुचिव्रत अत्यन्त प्रसन्न हुआ परन्तु राजसुत ने अपनी असहमति प्रकट करते हुए कहा - ' हे माँ यह धन तेरे पुत्र के पुण्य से उसे प्राप्त हुआ है । में इसमें किसी प्रकार का हिस्सा लेना नहीं चाहता क्योंकि अपने किये हुए कर्म का फल मनुष्य स्वयं ही भोगता है।
इस प्रकार शिव पूजन करते हुए एक ही घर में उन्हें एक वर्ष व्यतीत हो गया । एक दिन राजकुमार ब्राह्मण के पुत्र के साथ वसंत ऋतु में वनविहार करने के लिये गया । वे दोनों जब साथ - साथ वन में बहुत दूर निकल गये तो उन्हें वहां पर सैकड़ों गन्धर्व कन्यायें खेलती हुई दिखाई पड़ीं। ब्राह्मण कुमार उन गन्धर्व कन्याओं को कीड़ देखकर राजकुमार से बोला- ' यहां पर कन्यायें विहार कर रही है इसलिए हम लोगों को अब और आगे नहीं जाना चाहिये। क्योंकि वे गन्धर्व कन्यायें ही मनुष्यों के मन को मोहित कर लेती हैं । इसीलिए में तो इन कन्याओं से दूर ही रहूँगा।
परन्तु राजकुमार उसकी बात अनसुनी कर कन्याओं के बिहार स्थल में निर्भीक भाव से अकेला ही चला गया । उन सभी गन्धर्व कन्याओं में प्रधान सुन्दरी उस आये हुए राजकुमार को देखकर मन में विचार करने लगी कि कामदेव के समान सुन्दर रूप वाला यह राजकुमार कौन है ? उस राजकुमार साथ बातचीत करने के उद्देश्य से उस सुन्दरी ने अपनी सखियों से कहा - 'सखियों तुम लोग निकट के वन में जाकर अशोक, चम्पक, मौलसिरी आदि के लाजे फूल तोड़ लाओ । तब तक में तुम्हारी प्रतीक्षा में यहीं रुकी रहूंगी। 'उस गन्धर्व कुमारी की बात सुनते ही सब सखियों वहाँ से चली गई । सखियों के जाने के बाद यह गन्धर्व कन्या उस राजकुमार को स्थिर दृष्टि से देखने लगी उन दोनों में परस्पर प्रेम का संचार होने लगा गन्धर्व कन्या ने राजकुमार को बैठने के लिये आसन दिया प्रेमालाप के कारण राजकुमार के सहवास के लिये वह सुन्दरी व्याकुल हो उठी और राजकुमार से प्रश्न करने लगी है कमल के समान ' हे ने वाले आप किस देश के रहने वाले हैं ? आपका यहाँ आना क्योंकर हुआ?
गन्धर्व कन्या की बात सुनकर राजकुमार ने उत्तर दिया - में विदर्भराज का पुत्र हूँ । मेरे माता - पिता स्वर्गवासी हो चुके हैं। शत्रुओं ने मुझसे मेरा राज्य हरण कर लिया है।
राजकुमार ने अपना परिचय देकर उस गन्धर्व कन्या से पूछा - आप कौन हैं ? की पुत्री हैं ? और इस वन में किस उद्देश्य से आई हैं ? आप मुझसे क्या कहना चाहती हैं । राजकुमार की बात सुनकर गन्धर्व कन्या ने कहा- में विद्रविक नामक गन्धर्व की पुत्री अंशुमती हूँ । आपको देखकर आपसे बात - चीत करने के लिये ही यहाँ पर सखियों का साथ छोड़कर क गई हूँ । में गान विद्या में बहुत ही निपुण हूँ । मेरे गान पर सभी देवांगनायें रीत्र जाती हैं । मैं चाहती हूँ कि आपका और मेरा प्रेम सर्वदा बना रहे । इतनी बात कहकर उस गन्धर्व कन्या ने अपने गले का बहुमूल्य मुक्ताहार राजकुमार के गले में डाल दिया । वह हार उन दोनों के प्रेम का प्रतीक बन गया । इसके पश्चात राजकुमार ने उस कन्या से कहा है सुन्दरी तुमने जो कुछ कहा है , वह सब सत्य है । लेकिन आप राजविहीन राजकुमार के पास कैसे रह सकेंगी ? आप अपने पिता की अनुमति के लिये बिना मेरे साथ कैसे चल सकेंगी ? " राजकुमार की बात पर वह कन्या मुस्करा कर कहने लगी- जो कुछ भी हो , मैं अपनी से आपका वरण करूंगी । अब आप परसों प्रातःका यहाँ पर आइयेगा मेरी बात कभी छूट नहीं हो सकती । गन्धर्व कन्या ऐसा कहकर पुनः अपनी सखियों के पास चली गई । इधर वह राजकुमार भी शुचिव्रत के पास जा पहुंचा और उसने अपना सारा वृत्तांत कह सुनाया । इसके बाद वे दोनों घर को लौट गये पर पहुंच कर उन लोगों ने ब्राह्मणी से सब हाल कहा , जिसे सुनकर वह ब्राह्मणी भी हर्षित हुई । गन्धर्व कन्या द्वारा निश्चित दिन को वह राजकुमार शुचिव्रत के साथ उसी बन में पहुंचा । यहाँ पहुंच कर उन लोगों ने देखा गन्धर्वराज अपनी पुत्री अंशुमती के साथ उपस्थित होकर में बैठे हैं । गन्धर्व ने उन दोनों कुमारों का अभिनन्दन करके उन्हें सुन्दर आसन पर बिटाया और राजकुमार से कहा-
में परसों केलाशपुरी को गया था । वहाँ पर भगवान शंकर पार्वती सहित विराजमान थे । उन्होंने मुझे अपने पास बुलाकर का पृथ्वी पर राज्य होकर धर्मगुप्त नामक राजकुमार धूम रहा है । शत्रुओं ने उसके वंश को नष्ट - भ्रष्ट कर दिया है । यह कुमार सदा ही भक्तिपूर्वक मेरी सेवा किया करता है । इसलिये तुम उसकी सहायता करो , जिससे वह अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सके । इसलिये में भगवान शिव की आज्ञा से अपनी पुत्री अंशुमती आपको सौंपता है में शत्रुओं के हाथ में गये हुए आपके राज्य को वापिस दिला दूंगा आप इस कन्या के साथ दस हजार वर्षों तक सुख भोगकर शिवलोक में आने पर भी मेरी पुत्री इसी शरीर से आपके साथ रहेगी इतना कहने अपनी पुत्री का विवाह राजकुमार के साथ कर दिया । दहेज में अनेक बहुमूल्य रत्न आदि प्रदान किये । इसके अतिरिक्त दास दासियों तथा शत्रुओं पर विजय पाने के लिये गन्धवों की पतुरंगिणी सेना भी दी । से राजकुमार ने गन्धयों की सहायता से शत्रुओं को नष्ट किया और वह अपने नगर में प्रविष्ट हुआ मंत्रियों ने राजकुमार को सिंहासन पर बैठाकर राज्याभिषेक किया । अब यह राजकुमार राज - सुख भोगने लगा।
जिस दरिंद्र ब्राह्मणी ने इसका पालन - पोषण किया था उसे ही राजमाता के पद आसीन किया गया वह शुचित ही उसका छोटा भाई बना इस प्रकार प्रदोष व्रत में शिव पूजन के प्रभाव से वह राजकुमार दुर्लभ पद को प्राप्त हुआ जो मनुष्य प्रदोषकाल में अथवा नित्य ही इस कथा को श्रवण करता है वह निश्चय ही सभी कष्टों से मुक्त हो जाता है और अंत में वह परम पद का अधिकारी बनता है।
आचार्य दिनेश पाण्डेय शास्त्री (मुम्बई & उत्तराखण्ड)
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