ज्येष्ठ पूर्णिमा वट सावित्री व्रत 21 जून 2024
वट सावित्री पूजा विधि:- वट सावित्री व्रत में बरगद के पेड़ के साथ-साथ सत्यवान, सावित्री और यमराज की पूजा की जाती है। मान्यता है कि बरगद के पेड़ में ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवों का वास होता है। इसलिए बरगद के पेड़ के सामने बैठकर पूजा करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। वट सावित्री व्रत के दिन विवाहित महिलाओं को सुबह उठकर स्नान करना चाहिए। इसके बाद रेत से भरी एक बांस की टोकरी लें और उसमें ब्रह्मदेव की मूर्ति के साथ सावित्री की मूर्ति स्थापित करें। इसी तरह दूसरी टोकरी में सत्यवान और सावित्री की मूर्ति स्थापित करें। दोनों टोकरियों को बरगद के पेड़ के नीचे रखें और ब्रह्मदेव और सावित्री की मूर्तियों की पूजा करें। इसके बाद सत्यवान और सावित्री की मूर्तियों की पूजा करें और बरगद के पेड़ पर जल चढ़ाएं। बरगद के पेड़ की पूजा के लिए जल, फूल, रोली-मौली, कच्चा धागा, भिगोया हुआ चना, गुड़ आदि चढ़ाएं। जलाभिषेक करें। उत्तर भारत में जहां ज्येष्ठ अमावस्या के दिन व्रत रखा जाता है, वहीं दक्षिण भारत में लोग ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन व्रत रखते हैं। वट सावित्री व्रत में विवाहित महिलाएं व्रत रखकर वट सावित्री व्रत कथा सुनती हैं और उसके बाद पूरे विधि-विधान से वट वृक्ष की पूजा करती हैं।
वट सावित्री पूर्णिमा व्रत एक ऐसा व्रत है जिसमें हिंदू धर्म में आस्था रखने वाली महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र और संतान प्राप्ति के लिए प्रार्थना करती हैं। यह व्रत उत्तर भारत में काफी प्रचलित है। इस व्रत की तिथि को लेकर पौराणिक ग्रंथों में अलग-अलग मत हैं। दरअसल, यह व्रत ज्येष्ठ मास की अमावस्या और उसी माह की पूर्णिमा को रखा जाता है। एक ओर जहां निर्णयामृत के अनुसार वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ मास की अमावस्या को रखा जाता है, वहीं स्कंद पुराण और भविष्योत्तर पुराण में इसे ज्येष्ठ पूर्णिमा को रखने का निर्देश दिया गया है।
वट सावित्री पूर्णिमा व्रत दक्षिण भारत में मनाया जाता है, जबकि वट सावित्री अमावस्या व्रत उत्तर भारत में विशेष रूप से मनाया जाता है। आइए जानते हैं वट सावित्री व्रत की कथा क्या है और इस पर्व का क्या महत्व है। महत्व:- जैसा कि इसकी कथा से ज्ञात होता है कि यह पर्व हर परिस्थिति में अपने जीवनसाथी का साथ देने का संदेश देता है। इससे ज्ञात होता है कि एक पतिव्रता स्त्री में इतनी शक्ति होती है कि वह यमराज से भी अपने पति के प्राण वापस ला सकती है। साथ ही सास-ससुर की सेवा और पत्नी कर्तव्य का पाठ भी इस पर्व से सीखा जाता है। मान्यता है कि इस दिन सौभाग्यवती स्त्रियां अपने पति की लंबी आयु, स्वास्थ्य और उन्नति तथा संतान प्राप्ति के लिए यह व्रत रखती हैं।
वट सावित्री व्रत कथा:-
वट सावित्री कथा उत्तर भारत में सत्यवान सावित्री के नाम से विशेष रूप से प्रचलित है। कथा के अनुसार एक समय की बात है मद्र देश में अश्वपति नामक एक धर्मपरायण राजा राज्य करते थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। राजा ने संतान प्राप्ति के लिए यज्ञ किया। कुछ समय बाद उन्हें एक पुत्री की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने सावित्री रखा। जब सावित्री विवाह योग्य हुई तो उसने युमत्सेन के पुत्र सत्यवान को पति के रूप में चुना। सत्यवान राजा का पुत्र था लेकिन वह अपना राज्य खो चुका था और अब बहुत ही दरिद्रता में जीवन व्यतीत कर रहा था। उसके माता-पिता की भी आंखों की रोशनी चली गई थी।
सत्यवान किसी तरह जंगल से लकड़ियां काटकर और उन्हें बेचकर अपना गुजारा कर रहा था। जब सावित्री और सत्यवान के विवाह की बात चली तो नारद मुनि ने सावित्री के पिता राजा अश्वपति से कहा कि सत्यवान की आयु अल्पायु है और विवाह के एक वर्ष के भीतर ही उसकी मृत्यु हो जाएगी। हालांकि राजा अश्वपति सत्यवान को देखकर पहले से ही चिंतित थे और सावित्री को समझाने का प्रयास कर रहे थे। नारद की बातों से वे और अधिक चिंतित हो गए परंतु सावित्री ने उनकी एक न सुनी और अपने निर्णय पर अडिग रहीं। अंततः सावित्री और सत्यवान का विवाह हो गया। सावित्री अपने ससुराल वालों और पति की सेवा में लगी रहीं। जिस दिन नारद मुनि ने सत्यवान की मृत्यु की भविष्यवाणी की थी, उस दिन सावित्री भी सत्यवान के साथ वन में गईं। वन में जैसे ही सत्यवान लकड़ी काटने के लिए एक पेड़ पर चढ़े, उनके सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी और वे सावित्री की गोद में सिर रखकर लेट गए। कुछ देर बाद स्वयं यमराज अनेक दूतों के साथ उनके सामने खड़े थे। यमराज सत्यवान के आत्मा को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चलने लगे तो पतिव्रता सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चलने लगीं। आगे जाकर यमराज ने सावित्री से कहा, 'हे पतिव्रता नारी! तुमने अपने पति का उतना ही साथ दिया है, जितना एक मनुष्य दे सकता है। अब तुम वापस लौट जाओ।' इस पर सावित्री बोली, जहां मेरे पति जाएं, मैं भी वहीं जाऊं। यह शाश्वत सत्य है। सावित्री की आवाज सुनकर यमराज ने उससे कुछ मांगने को कहा। सावित्री बोली, "मेरे ससुर और सास अंधे हैं। कृपया उन्हें दृष्टि प्रदान करें।" यमराज ने कहा, "ऐसा ही हो।" और उसे वापस जाने को कहा और आगे बढ़ने लगे। लेकिन सावित्री यमराज के पीछे-पीछे चलती रही। प्रसन्न होकर यमराज ने उसे दूसरा वर मांगने को कहा। सावित्री ने मांगा, "मेरे ससुर का खोया हुआ राज्य उन्हें वापस मिल जाए।" यमराज ने कहा, "ऐसा ही हो।" और उसे वापस जाने को कहा, लेकिन सावित्री अपनी बात पर अड़ी रही और वापस नहीं लौटी। सावित्री की पति-भक्ति देखकर यमराज पिघल गए और उन्होंने सावित्री से दूसरा वर मांगने को कहा। तब सावित्री ने मांगा, "मैं सत्यवान के सौ पुत्रों की मां बनना चाहती हूं। कृपा करके मुझे यह वरदान दीजिए।
सावित्री की पति-भक्ति से प्रसन्न होकर यमराज ने यह अंतिम वरदान दिया और सत्यवान की आत्मा को पाश से मुक्त कर दिया और अंतर्ध्यान हो गए। जब सावित्री उसी वट वृक्ष के पास आईं तो उन्होंने पाया कि वट वृक्ष के नीचे पड़ा सत्यवान का मृत शरीर अब जीवित हो गया है। कुछ देर बाद सत्यवान उठकर बैठ गए। सत्यवान के माता-पिता की आंखों की रोशनी भी ठीक हो गई और उन्हें अपना खोया हुआ राज्य वापस मिल गया।
आचार्य दिनेश पाण्डेय शास्त्री (मुम्बई & उत्तराखण्ड)
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