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गणेश चतुर्थी (स्थापना) पूजन 7 सितम्बर 2024

 

गणेश चतुर्थी (स्थापना) पूजन 7 सितम्बर 2024

गणेश चतुर्थी स्थापना पूजन हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण उत्सव है, जो भगवान गणेश की पूजा के लिए मनाया जाता है। इसे विनायक चतुर्थी या गणेशोत्सव के नाम से भी जाना जाता है। यह उत्सव विशेष रूप से महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोवा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, और मध्य प्रदेश में बहुत धूमधाम से मनाया जाता है।

यहाँ गणेश चतुर्थी स्थापना की मुख्य पूजन विधि बतायी गयी है:

1. गणेश मूर्ति की स्थापना:

  • शुभ मुहूर्त में गणेश जी की मूर्ति को घर में या सार्वजनिक स्थान पर स्थापित किया जाता है।
  • गणेश जी की मूर्ति को एक साफ और पवित्र स्थान पर रखा जाता है।
  • मूर्ति की स्थापना से पहले स्थान को गंगा जल या पवित्र जल से शुद्ध किया जाता है।

2. गणपति आवाहन:

  • गणेश जी का आवाहन मंत्रों के साथ किया जाता है। इस समय उन्हें फूल, अक्षत (चावल), और दूर्वा (घास) अर्पित की जाती है।
  • “ॐ गण गणपतये नमः” मंत्र का जाप किया जाता है।

3. पंचोपचार या षोडशोपचार पूजन:

  • भगवान गणेश की पूजा पंचोपचार (धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प, और चंदन) या षोडशोपचार (16 प्रकार की पूजन विधियों) से की जाती है।
  • भगवान को स्नान करवाने के बाद, उन्हें वस्त्र, यज्ञोपवीत (जनेऊ), और आभूषण पहनाए जाते हैं।
  • गणेश जी को मोदक, लड्डू, या अन्य मिठाइयाँ अर्पित की जाती हैं। मोदक को गणेश जी का प्रिय भोग माना जाता है।

4. आरती और प्रार्थना:

  • गणेश जी की आरती गाई जाती है। इस समय सभी उपस्थित लोग आरती में भाग लेते हैं और भगवान गणेश से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

5. विसर्जन का संकल्प:

  • गणेश चतुर्थी पर गणपति की स्थापना के बाद, गणेश जी की मूर्ति को 1.5 दिन, 3 दिन, 5 दिन, 7 दिन, 9 दिन या 11 दिन के बाद गणेश प्रतिमा को किसी तालाब इत्यादि जल में विसर्जित किया जाता है। विसर्जन करने का संकल्प लिया जाता है। विसर्जन का दिन परिवार की परंपराओं और मान्यताओं के अनुसार तय किया जाता है।

पूरे उत्सव के दौरान, भक्ति और श्रद्धा से भगवान गणेश की पूजा की जाती है और उनसे जीवन में सुख, समृद्धि और शांति का आशीर्वाद मांगा जाता है।

पुराणानुसार

शिवपुराण में भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को मंगलमूर्ति गणेश की अवतरण-तिथि बताया गया है जबकि गणेशपुराण के मत से यह गणेशावतार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को हुआ था। गण + पति = गणपति। संस्कृतकोशानुसार गण’ अर्थात पवित्रक। पति’ अर्थात स्वामी, ‘गणपति’ अर्थात पवित्रकों के स्वामी।

कथा

शिवपुराण के अन्तर्गत रुद्रसंहिताके चतुर्थ (कुमार) खण्ड में यह वर्णन है कि माता पार्वती ने स्नान करने से पूर्व अपनी मैल से एक बालक को उत्पन्न करके उसे अपना द्वार पाल बना दिया। शिवजी ने जब प्रवेश करना चाहा तब बालक ने उन्हें रोक दिया। इस पर शिवगणोंने बालक से भयंकर युद्ध किया परंतु संग्राम में उसे कोई पराजित नहीं कर सका। अन्ततोगत्वा भगवान शंकर ने क्रोधित होकर अपने त्रिशूल से उस बालक का सिर काट दिया। इससे भगवती शिवा क्रुद्ध हो उठीं और उन्होंने प्रलय करने की ठान ली। भयभीत देवताओं ने देवर्षिनारद की सलाह पर जगदम्बा की स्तुति करके उन्हें शांत किया।

शिवजी के निर्देश पर विष्णुजीउत्तर दिशा में सबसे पहले मिले जीव (हाथी) का सिर काटकर ले आए। मृत्युंजय रुद्र ने गज के उस मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया। माता पार्वती ने हर्षातिरेक से उस गज मुख बालक को अपने हृदय से लगा लिया और देवताओं में अग्रणी होने का आशीर्वाद दिया। ब्रह्माविष्णुमहेश ने उस बालक को सर्वाध्यक्ष घोषित करके अग्रपूज्यहोने का वरदान दिया। भगवान शंकर ने बालक से कहा-गिरिजानन्दन! विघ्न नाश करने में तेरा नाम सर्वोपरि होगा। तू सबका पूज्य बनकर मेरे समस्त गणों का अध्यक्ष हो जा। गणेश्वर तू भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को चंद्रमा के उदित होने पर उत्पन्न हुआ है। इस तिथि में व्रत करने वाले के सभी विघ्नों का नाश हो जाएगा और उसे सब सिद्धियां प्राप्त होंगी। कृष्णपक्ष की चतुर्थी की रात्रि में चंद्रोदय के समय गणेश तुम्हारी पूजा करने के पश्चात् व्रती चंद्रमा को अ‌र्घ्य देकर ब्राह्मण को मिष्ठान खिलाए। तदोपरांत स्वयं भी मीठा भोजन करे। वर्ष पर्यन्त श्रीगणेश चतुर्थी का व्रत करने वाले की मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है।

दूसरी कथा

एक बार महादेवजीपार्वती सहित नर्मदा के तट पर गए। वहाँ एक सुंदर स्थान पर पार्वती जी ने महादेवजी के साथ चौपड़ खेलने की इच्छा व्यक्त की। तब शिवजी ने कहा- हमारी हार-जीत का साक्षी कौन होगापार्वती ने तत्काल वहाँ की घास के तिनके बटोरकर एक पुतला बनाया और उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करके उससे कहा- बेटा ! हम चौपड़ खेलना चाहते हैंकिन्तु यहाँ हार-जीत का साक्षी कोई नहीं है। अतः खेल के अन्त में तुम हमारी हार-जीत के साक्षी होकर बताना कि हममें से जीताकौन हारा?

खेल आरंभ हुआ। दैवयोग से तीनों बार पार्वती जी ही जीतीं। जब अंत में बालक से हार-जीत का निर्णय कराया गया तो उसने महादेवजी को विजयी बताया। परिणामतः पार्वती जी ने क्रुद्ध होकर उसे एक पाँव से लंगड़ा होने और वहाँ के कीचड़ में पड़ा रहकर दुःख भोगने का श्राप दे दिया। बालक ने विनम्रतापूर्वक कहा- माँ! मुझसे अज्ञानवश ऐसा हो गया है। मैंने किसी कुटिलता या द्वेष के कारण ऐसा नहीं किया। मुझे क्षमा करें तथा शाप से मुक्ति का उपाय बताएँ। तब ममतारूपी माँ को उस पर दया आ गई और वे बोलीं- यहाँ नाग-कन्याएँ गणेश-पूजन करने आएँगी। उनके उपदेश से तुम गणेश व्रत करके मुझे प्राप्त करोगे। इतना कहकर वे कैलाश पर्वत चली गईं।

एक वर्ष बाद वहाँ श्रावण में नाग-कन्याएँ गणेश पूजन के लिए आईं। नाग-कन्याओं ने गणेश व्रत करके उस बालक को भी व्रत की विधि बताई। तत्पश्चात बालक ने 12 दिन तक श्रीगणेशजी का व्रत किया। तब गणेशजी ने उसे दर्शन देकर कहा- मैं तुम्हारे व्रत से प्रसन्न हूँ। मनोवांछित वर माँगो। बालक बोला- भगवन! मेरे पाँव में इतनी शक्ति दे दो कि मैं कैलाश पर्वत पर अपने माता-पिता के पास पहुँच सकूं और वे मुझ पर प्रसन्न हो जाएँ। गणेशजी 'तथास्तुकहकर अंतर्धान हो गए। बालक भगवान शिव के चरणों में पहुँच गया। शिवजी ने उससे वहाँ तक पहुँचने के साधन के बारे में पूछा। तब बालक ने सारी कथा शिवजी को सुना दी। उधर उसी दिन से अप्रसन्न होकर पार्वती शिवजी से भी विमुख हो गई थीं। तदुपरांत भगवान शंकर ने भी बालक की तरह २१ दिन पर्यन्त श्रीगणेश का व्रत कियाजिसके प्रभाव से पार्वती के मन में स्वयं महादेवजी से मिलने की इच्छा जाग्रत हुई।

वे शीघ्र ही कैलाश पर्वत पर आ पहुँची। वहाँ पहुँचकर पार्वतीजी ने शिवजी से पूछा- भगवन! आपने ऐसा कौन-सा उपाय किया जिसके फलस्वरूप मैं आपके पास भागी-भागी आ गई हूँ। शिवजी ने 'गणेश व्रतका इतिहास उनसे कह दिया। तब पार्वतीजी ने अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा से 21 दिन पर्यन्त 21-21 की संख्या में दूर्वापुष्प तथा लड्डुओं से गणेशजी का पूजन किया। 21वें दिन कार्तिकेय स्वयं ही पार्वतीजी से आ मिले। उन्होंने भी माँ के मुख से इस व्रत का माहात्म्य सुनकर व्रत किया। कार्तिकेय ने यही व्रत विश्वामित्रजी को बताया। विश्वामित्रजी ने व्रत करके गणेशजी से जन्म से मुक्त होकर 'ब्रह्म-ऋषिहोने का वर माँगा। गणेशजी ने उनकी मनोकामना पूर्ण की। ऐसे हैं श्री गणेशजीजो सबकी कामनाएँ पूर्ण करते हैं।


तीसरी कथा

एक बार महादेवजी स्नान करने के लिए भोगावती गए। उनके जाने के पश्चात पार्वती ने अपने तन के मैल से एक पुतला बनाया और उसका नाम 'गणेशरखा। पार्वती ने उससे कहा- हे पुत्र! तुम एक मुगदल लेकर द्वार पर बैठ जाओ। मैं भीतर जाकर स्नान कर रही हूँ। जब तक मैं स्नान न कर लूंतब तक तुम किसी भी पुरुष को भीतर मत आने देना।

भोगावती में स्नान करने के बाद जब भगवान शिवजी आए तो गणेश जी ने उन्हें द्वार पर रोक लिया। इसे शिवजी ने अपना अपमान समझा और क्रोधित होकर उनका सिर धड़ से अलग करके भीतर चले गए। पार्वती ने उन्हें नाराज देखकर समझा कि भोजन में विलंब होने के कारण महादेवजी नाराज हैं। इसलिए उन्होंने तत्काल दो थालियों में भोजन परोसकर शिवजी को बुलाया। तब दूसरा थाल देखकर तनिक आश्चर्यचकित होकर शिवजी ने पूछा- यह दूसरा थाल किसके लिए हैंपार्वती जी बोलीं- पुत्र गणेश के लिए हैंजो बाहर द्वार पर पहरा दे रहा है।

यह सुनकर शिवजी और अधिक आश्चर्यचकित हुए। तुम्हारा पुत्र पहरा दे रहा हैहाँ नाथ! क्या आपने उसे देखा नहींदेखा तो थाकिन्तु मैंने तो अपने रोके जाने पर उसे कोई उद्दण्ड बालक समझकर उसका सिर काट दिया। यह सुनकर पार्वती जी बहुत दुःखी हुईं। वे विलाप करने लगीं। तब पार्वती जी को प्रसन्न करने के लिए भगवान शिव ने एक हाथी के बच्चे का सिर काटकर बालक के धड़ से जोड़ दिया। पार्वती जी इस प्रकार पुत्र गणेश को पाकर बहुत प्रसन्न हुई। उन्होंने पति तथा पुत्र को प्रीतिपूर्वक भोजन कराकर बाद में स्वयं भोजन किया। यह घटना भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को हुई थी। इसीलिए यह तिथि पुण्य पर्व के रूप में मनाई जाती है।

व्रत

भाद्रपद-कृष्ण-चतुर्थी से प्रारंभ करके प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चंद्रोदयव्यापिनीचतुर्थी के दिन व्रत करने पर विघ्नेश्वरगणेश प्रसन्न होकर समस्त विघ्न और संकट दूर कर देते हैं।

चंद्र दर्शन दोष से बचाव

प्रत्येक शुक्ल पक्ष चतुर्थी को चन्द्रदर्शन के पश्चात्‌ व्रती को आहार लेने का निर्देश हैइसके पूर्व नहीं। किंतु भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को रात्रि में चन्द्र-दर्शन (चन्द्रमा देखने को) निषिद्ध किया गया है। जो व्यक्ति इस रात्रि को चन्द्रमा को देखते हैं उन्हें झूठा-कलंक प्राप्त होता है। ऐसा शास्त्रों का निर्देश है। यह अनुभूत भी है। इस गणेश चतुर्थी को चन्द्र-दर्शन करने वाले व्यक्तियों को उक्त परिणाम अनुभूत हुएइसमें संशय नहीं है। यदि जाने-अनजाने में चन्द्रमा दिख भी जाए तो निम्न मंत्र का पाठ अवश्य कर लेना चाहिए-

'सिहः प्रसेनम्‌ अवधीत्‌सिंहो जाम्बवता हतः। 

सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्वमन्तकः॥'


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👉 गणेश चतुर्थी स्थापना पूजन सामग्री


 आचार्य दिनेश पाण्डेय शास्त्री (मुम्बई & उत्तराखण्ड)


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