
कुशोत्पाटिनी अमावस्या
भाद्रपद मास की अमावस्या तिथि कुशोत्पाटिनी (या कुशाग्रहणी) अमावस के नाम से जानी जाती है। इसदिन कुशा-सञ्चय करने से वर्षभर उसकी शुद्धता रहती है। जिस कुश का मूल सुतीक्षण हो, जिसमें पत्ती हो, अग्रभाग कटा न हो और हरा हो, वह देव तथा पितृ-दोनों कार्यों के लिए उपयुक्त होता है।
धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व
“कुशोत्पाटिनी” शब्द का अर्थ है- वह अमावस्या जब पवित्र कुश-घास (कुषा घास) को भूमि से विधिपूर्वक उखाड़ा जाता है, जिसे आगे चलकर पूजा, यज्ञ, श्राद्ध और श्राद्ध-संयोजन कार्यों में प्रयोग किया जाता है।
शास्त्रों में कहा गया है कि कुश के बिना किसी पूजा-कर्म की सफलता संभव नहीं मानी जाती, इसलिए इसे संपूर्ण वर्ष में धार्मिक अनुष्ठानों के लिए इस दिन संग्रहित करना शुभ माना जाता है।
इस तिथि को पितृ-पक्ष की शुरुआत मानते हुए पितृ तर्पण, श्राद्ध, पिंडदान जैसे कर्मों के आरंभ की के लिए उत्तम समय माना जाता है।
शनि अमावस्या के साथ विशेष योग
शनि के साथ अमावस्या का संयोग—जब यह शनिवार को आती है—शनि दोष, साढ़ेसाती, ढैय्या आदि से मुक्ति, पितृ कृपा और सफलता प्राप्त करने का एक दुर्लभ और प्रभावशाली अवसर होता है।
ज्योतिषाचार्य बताते हैं कि इस वर्ष यह संयोग 4 वर्षों बाद बन रहा है, जिससे इसकी शक्तियाँ और भी अधिक फलदायी मानी गई हैं।
विधियाँ और उपाय
उक्त दिन की पवित्रता और योग की पुष्टि करते हुए, धार्मिक परंपराएँ निम्नलिखित विधियों पर विशेष जोर देती हैं-
कुशा एकत्रण (Kush Uprooting)
सुर्योदय से पहले स्नान कर, साफ-सुथरे नदी, पोखर या जलाशय के पास स्थित भूमि से कुशा उठा लेना चाहिए।
पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके, केवल अपने हाथ से कुशा उखाड़ें; किसी औज़ार का उपयोग न करें।
कुशा की पत्तियां पूरी होनी चाहिए — अर्थात् फुटी हुई न होनी चाहिए।
यदि भाद्रपद मास में सोमवती अमावस्या हो, तब ऐसी कुशा का उपयोग 12 वर्षों तक किया जा सकता है।
धार्मिक अनुष्ठान
पितर तर्पण, श्राद्ध और पिंडदान की शुरुआत इस दिन से करना उत्तम माना जाता है।
शनि देव को प्रसन्न करने हेतु
तिल, काला तेल, काले वस्त्र, काले तिल, सरसों का तेल, उड़द की दाल, जूते-चप्पल आदि का दान करें।
ॐ शं शनैश्चराय नमः मंत्र का जप करें, पीपल वृक्ष की पूजा करें और शनि देव पर तिल-तैल से अभिषेक करें।
दान-पुण्य विशेष फलदायी होता है - जैसे भोजन, वस्त्र या अन्य उपयोगी वस्तुओं का दान-विशेषकर पितरों या शनि से जुड़ा धार्मिक भाव रखते हुए।
पौराणिक पृष्ठभूमि
पुराणों के अनुसार, जब भगवान वराह अवतार ने पृथ्वी को पुनः स्थापित किया, तब उनके आंसुओं से धरती पर कुशा की उत्पत्ति हुई। कुशा के विभिन्न भागों में त्रिदेव-ब्रह्मा (जड़), विष्णु (मध्य), शिव (शीर्ष)—स्थापित हुए माने जाते हैं।
अतः कुशा में ब्रह्मांडीय ऊर्जा और पवित्रता निहित माना जाता है, जो पूजा-अनुष्ठानों में आदिकारक है।
आचार्य दिनेश पाण्डेय शास्त्री
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