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शिव पुराण के अनुसार भस्मधारण संध्यावंदन गायत्री जप दान की महिमा


शिव पुराण के अनुसार 'अग्निरिति ० ' मन्त्रसे भस्म लेकर उसके द्वारा त्रिपुण्ड्र लगाये'। इस विधिका पालन न किया जाय , इसके पूर्व ही यदि जलमें भस्म गिर जाय तो गिरानेवाला नरकमें जाता है । आपो हि ष्ठा ० ' इत्यादि मन्त्रसे पाप - शान्तिके लिये सिरपर जल छिड़के तथा ' यस्य क्षयाय ' इस मन्त्रको पढ़कर पैरपर जल छिड़के । इसे संधिप्रोक्षण कहते हैं । ' आपो हि ष्ठा ० इत्यादि मन्त्रमें तीन ऋचाएँ हैं और प्रत्येक ऋचामें गायत्री छन्दके तीन - तीन चरण हैं । इनमेंसे प्रथम ऋचाके तीन चरणोंका पाठ करते हुए क्रमश : पैर , मस्तक और हृदयमें जल छिड़के । दूसरी ऋचाके तीन चरणोंको पढ़कर क्रमशः मस्तक , हृदय और पैरमें जल छिड़के तथा तीसरी ऋचाके तीन चरणोंका पाठ करते हुए क्रमशः हृदय , पैर और मस्तकका जलसे प्रोक्षण करे । इसे विद्वान् पुरुष ' मन्त्र - स्नान ' मानते हैं । किसी अपवित्र वस्तुसे किंचित् स्पर्श हो जानेपर , अपना स्वास्थ्य ठीक न रहनेपर , राजा और राष्ट्रपर भय उपस्थित होनेपर तथा यात्राकालमें जलकी उपलब्धि न होनेकी विवशता आ जानेपर ' मन्त्र- स्नान ' करना चाहिये । प्रातःकाल ' सूर्यश्च मा मन्युश्च ' इत्यादि सूर्यानुवाकसे तथा सायंकाल अग्निश्च मा मन्युश्च ' इत्यादि अग्नि - सम्बन्धी अनुवाकसे जलका आचमन करके पुनः जलसे अपने अंगोंका प्रोक्षण करे । मध्याह्नकालमें भी आपः पुनन्तु ' इस मन्त्रसे आचमन करके पूर्ववत् प्रोक्षण या मार्जन करना चाहिये । प्रात : कालकी संध्योपासनामें गायत्री मन्त्रका जप करके तीन बार ऊपरकी ओर सूर्यदेवको अर्घ्य देने चाहिये । ब्राह्मणो ! मध्याह्नकालमें गायत्री मन्त्रके उच्चारणपूर्वक सूर्यको एक ही अर्घ्य देना चाहिये । फिर सायंकाल आनेपर पश्चिमकी ओर मुख करके बैठ जाय और पृथ्वीपर ही सूर्यके लिये अर्घ्य दे ( ऊपरकी ओर नहीं ) । प्रात : काल और मध्याह्नके समय अंजलिमें अर्घ्यजल लेकर अंगुलियोंकी ओरसे सूर्यदेवके लिये अर्घ्य दे । फिर अंगुलियोंके छिद्रसे ढलते हुए सूर्यको देखे तथा उनके लिये स्वतः प्रदक्षिणा करके शुद्ध आचमन करे । सायंकालमें सूर्यास्तसे दो घड़ी पहले की हुई संध्या निष्फल होती है ; क्योंकि वह सायं संध्याका समय नहीं है । ठीक समयपर संध्या करनी चाहिये , ऐसी शास्त्रकी आज्ञा है । यदि संध्योपासना किये बिना दिन बीत जाय तो प्रत्येक समयके लिये क्रमश : प्रायश्चित्त करना चाहिये । यदि एक दिन बीते तो प्रत्येक बीते हुए संध्याकालके लिये नित्य - नियमके अतिरिक्त सौ गायत्री मन्त्रका अधिक जप करे । यदि नित्यकर्मके लुप्त हुए दस दिनसे अधिक बीत जाय तो उसके प्रायश्चित्तरूपमें एक लाख गायत्रीका जप करना चाहिये । यदि एक मासतक नित्यकर्म छूट जाय तो पुनः अपना उपनयनसंस्कार कराये । अर्थसिद्धिके लिये ईश , गौरी , कार्तिकेय , विष्णु , ब्रह्मा , चन्द्रमा और यमका तथा ऐसे ही अन्य देवताओंका भी शुद्ध जलसे तर्पण करे । फिर तर्पण कर्मको ब्रह्मार्पण करके शुद्ध आचमन करे । तीर्थके दक्षिण प्रशस्त मठमें , मन्त्रालयमें , देवालयमें , घरमें अथवा अन्य किसी नियत स्थानमें आसनपर स्थिरतापूर्वक बैठकर विद्वान् पुरुष अपनी बुद्धिको स्थिर करे और सम्पूर्ण देवताओंको नमस्कार करके पहले प्रणवका जप करनेके पश्चात् गायत्री मन्त्रकी आवृत्ति करे । प्रणवके ' ' , ' ' और ' म् ' इन तीनों अक्षरोंसे जीव और ब्रह्मकी एकताका प्रतिपादन होता है - इस बातको जानकर प्रणव ( ॐ ) -का जप करना चाहिये । जपकालमें यह भावना करनी चाहिये कि ' हम तीनों लोकोंकी सृष्टि करनेवाले ब्रह्मा , पालन करनेवाले विष्णु तथा संहार करनेवाले रुद्रकी - जो स्वयंप्रकाश चिन्मय हैं - उपासना करते हैं । यह ब्रह्मस्वरूप ओंकार हमारी कर्मेन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियोंकी वृत्तियोंको , मनकी वृत्तियोंको तथा बुद्धिवृत्तियोंको सदा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले धर्म एवं ज्ञानकी ओर प्रेरित करे । ' प्रणवके इस अर्थका बुद्धिके द्वारा चिन्तन करता हुआ जो इसका जप करता है , वह निश्चय ही ब्रह्मको प्राप्त कर लेता है । अथवा अर्थानुसंधानके बिना भी प्रणवका नित्य जप करना चाहिये । इससे ' ब्राह्मणत्वकी पूर्ति ' होती है । ब्राह्मणत्वकी पूर्तिके लिये श्रेष्ठ ब्राह्मणको प्रतिदिन प्रातःकाल एक सहस्त्र गायत्री मन्त्रका जप करना चाहिये । मध्याह्नकालमें सौ बार और सायंकालमें अट्ठाईस बार जपकी विधि है । अन्य वर्णके लोगोंको अर्थात् क्षत्रिय और वैश्यको तीनों संध्याओंके समय यथासाध्य गायत्री - जप करना चाहिये शरीरके भीतर मूलाधार , स्वाधिष्ठान मणिपूर , अनाहत , आज्ञा और सहस्रार -ये छ : चक्र हैं । इनमें मूलाधारसे लेकर सहस्त्रारतक छहों स्थानोंमें क्रमशः विद्येश्वर , ब्रह्मा , विष्णु ईश , जीवात्मा और परमेश्वर स्थित हैं । इन सबमें ब्रह्मबुद्धि करके इनकी एकताका निश्चय करे और ' वह ब्रह्म मैं हूँ ऐसी भावनापूर्वक प्रत्येक श्वासके साथ सोऽहं - आदिमें तथा इस शरीरसे बाहर भी भावना का जप करे । उन्हीं विद्येश्वर आदिकी ब्रह्मरन्ध करे । प्रकृतिके विकारभूत महत्तत्त्वसे लेकर पंचभूतपर्यन्त तत्त्वोंसे बना हुआ जो शरीर , ऐसे सहस्रों शरीरोंका एक - एक अजपा गायत्रीके जपसे एक - एकके क्रम अतिक्रमण करके जीवको धीरे - धीरे परमात्मा संयुक्त करे । यह जपका तत्त्व बताया गया है । सौ अथवा अट्ठाईस मन्त्रोंके जपसे उतने ही शरीरोंका अतिक्रमण होता है । इस प्रकार जो मन्त्रोंका जप है , इसीको आदिक्रमसे वास्तविक जप जानना चाहिये । सहस्र बार किया हुआ जप ब्रह्मलोक प्रदान करनेवाला होता है , ऐसा जानना चाहिये । सौ बार किया हुआ जप इन्द्रपदकी प्राप्ति करानेवाला माना गया है । ब्राह्मणेतर पुरुष आत्मरक्षाके लिये जो स्वल्पमात्रामें जप करता है , वह ब्राह्मणके कुलमें जन्म लेता है । प्रतिदिन सूर्योपस्थान करके उपर्युक्तरूपसे जपका अनुष्ठान करना चाहिये । बारह लाख गायत्रीका जप करनेवाला पुरुष पूर्णरूपसे ' ब्राह्मण ' कहा गया है । जिस ब्राह्मणने एक लाख गायत्रीका भी जप न किया हो , उसे वैदिक कार्यमें न लगाये । सत्तर वर्षकी अवस्थातक नियमपालनपूर्वक कार्य करे । इसके बाद गृहत्यागकर संन्यास ले ले । परिव्राजक या संन्यासी पुरुष नित्य प्रात : काल बारह हजार प्रणवका जप करे । यदि एक दिन इस नियमका उल्लंघन हो जाय तो दूसरे दिन उसके बदलेमें उतना मन्त्र और अधिक जपना चाहिये और सदा इस प्रकार जप को चलानेका प्रयत्न करना चाहिये । यदि क्रमश : एक मास आदिका उल्लंघन हो गया तो डेढ़ लाख जप करके उसका प्रायश्चित्त करना चाहिये । इससे अधिक समयतक नियमका उल्लंघन हो जाय तो पुन : नये सिरेसे गुरुसे नियम ग्रहण करे । ऐसा करनेसे दोषोंकी शान्ति होती है , अन्यथा वह रौरव नरकमें जाता है । जो सकाम भावनासे युक्त गृहस्थ ब्राह्मण है , उसीको धर्म तथा अर्थके लिये यत्न करना चाहिये । मुमुक्षु ब्राह्मणको तो सदा ज्ञानका ही अभ्यास करना चाहिये । धर्मसे अर्थकी प्राप्ति होती है , अर्थसे भोग सुलभ होता है । फिर उस भोगसे वैराग्यकी सम्भावना होती है । धर्मपूर्वक उपार्जित धनसे जो भोग प्राप्त होता है , उससे एक दिन अवश्य वैराग्यका उदय होता है । धर्मके विपरीत अधर्मसे उपार्जित हुए धनके द्वारा जो भोग प्राप्त होता है , उससे भोगोंके प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है । मनुष्य धर्मसे धन पाता है , तपस्यासे उसे दिव्य रूपकी प्राप्ति होती है । कामनाओंका त्याग करनेवाले पुरुषके अन्तःकरणकी शुद्धि होती है । उस शुद्धिसे ज्ञानका उदय होता है , इसमें संशय नहीं है । सत्ययुग आदिमें तपको ही प्रशस्त कहा गया है , किंतु कलियुगमें द्रव्यसाध्य धर्म ( दान आदि ) अच्छा माना गया है । सत्ययुगमें ध्यानसे , त्रेतामें तपस्यासे और द्वापरमें यज्ञ करनेसे ज्ञानकी सिद्धि होती है ; परंतु कलियुगमें प्रतिमा ( भगवद्विग्रह ) -की पूजासे ज्ञानलाभ होता है । अधर्म हिंसा ( दुःख ) -रूप है और धर्म सुखरूप है । अधर्मसे मनुष्य दुःख पाता है और धर्मसे वह सुख एवं अभ्युदयका भागी होता है । दुराचारसे दुःख प्राप्त होता है और सदाचारसे सुख । अतः भोग और मोक्षकी सिद्धिके लिये धर्मका उपार्जन करना चाहिये । जिसके घरमें कम - से - कम चार मनुष्य हैं , ऐसे कुटुम्बी ब्राह्मणको जो सौ वर्षके लिये जीविका ( जीवन - निर्वाहकी सामग्री ) देता है , उसके लिये वह दान ब्रह्मलोककी प्राप्ति करानेवाला होता है । एक सहस्त्र चान्द्रायण व्रतका अनुष्ठान ब्रह्मलोकदायक माना गया है । जो क्षत्रिय एक सहस्र कुटुम्बको जीविका और आवास देता है , उसका वह कर्म इन्द्रलोककी प्राप्ति करानेवाला होता है । दस हजार कुटुम्बोंको दिया हुआ आश्रय दान ब्रह्मलोक प्रदान करता है । दाता पुरुष जिस देवताको सामने रखकर दान करता है अर्थात् वह दानके द्वारा जिस देवताको प्रसन्न करना चाहता है , उसीका लोक उसे प्राप्त होता है - यह बात वेदवेत्ता पुरुष अच्छी तरह जानते हैं । धनहीन पुरुष सदा तपस्याका उपार्जन करे ; क्योंकि तपस्या और तीर्थसेवनसे अक्षय सुख पाकर मनुष्य उसका उपभोग करता है ।

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