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शिव पुराण के अनुसार न्यायतः उपार्जन अग्निहोत्री आदि की विधि


शिव पुराण के अनुसार न्यायतः धनके उपार्जनकी विधि। ब्राह्मणको चाहिये कि वह सदा सावधान रहकर विशुद्ध प्रतिग्रह ( दान ग्रहण ) तथा याजन ( यज्ञ कराने ) आदिसे धनका अर्जन करे । वह इसके लिये कहीं दीनता न दिखाये और न अत्यन्त क्लेशदायक कर्म ही करे । क्षत्रिय बाहुबलसे धनका उपार्जन करे और वैश्य कृषि एवं गोरक्षासे । न्यायोपार्जित धनका दान करनेसे दाताको ज्ञानकी सिद्धि प्राप्त होती है । ज्ञानसिद्धि द्वारा सब पुरुषोंको गुरुकृपा - मोक्षसिद्धि सुलभ होती है । मोक्षसे स्वरूपकी सिद्धि ( ब्रह्मरूपसे स्थिति ) प्राप्त होती है , जिससे मुक्त पुरुष परमानन्दका अनुभव करता है । गृहस्थ पुरुषको चाहिये कि वह धन धान्यादि सब वस्तुओंका दान करे । वह तृषानिवृत्तिके लिये जल तथा क्षुधारूपी रोगकी शान्तिके लिये सदा अन्नका दान करे । खेत , धान्य , कच्चा अन्न तथा भक्ष्य , भोज्य , लेह्य और चोष्य - ये चार प्रकारके सिद्ध अन्न दान करने चाहिये । जिसके अन्नको खाकर मनुष्य जबतक कथा श्रवण आदि सद्धर्मका पालन करता है , उतने समयतक उसके किये हुए पुण्यफलका आधा भाग दाताको मिल जाता है - इसमें संशय नहीं है । दान लेनेवाला पुरुष दानमें प्राप्त हुई वस्तुका दान तथा तपस्या करके अपने प्रतिग्रहजनित पापकी शुद्धि कर ले । अन्यथा उसे रौरव नरकमें गिरना पड़ता है । अपने धनके तीन भाग करे - एक भाग धर्मके लिये , दूसरा भाग वृद्धिके लिये तथा तीसरा भाग अपने उपभोगके लिये । नित्य , नैमित्तिक और काम्य - ये तीनों प्रकारके कर्म धर्मार्थ रखे हुए धनसे करे । साधकको चाहिये कि वह वृद्धिके लिये रखे हुए धनसे ऐसा व्यापार करे , जिससे उस धनकी वृद्धि हो तथा उपभोगके लिये रक्षित धनसे हितकारक , परिमित एवं पवित्र भोग भोगे । खेतीसे पैदा किये हुए धनका दसवाँ अंश दान कर दे । इससे पापकी शुद्धि होती है । शेष धनसे धर्म , वृद्धि एवं उपभोग करे ; अन्यथा वह रौरव नरकमें पड़ता है अथवा उसकी बुद्धि पापपूर्ण हो जाती है या खेती ही चौपट हो जाती है । वृद्धिके लिये किये गये व्यापारमें प्राप्त हुए धनका छठा भाग दान कर देने योग्य है । बुद्धिमान् पुरुष अवश्य उसका दान कर दे । विद्वान्को चाहिये कि वह दूसरोंके दोषोंका बखान न करे । ब्राह्मणो ! दोषवश दूसरोंके सुने या देखे हुए छिद्रको भी प्रकट न करे । विद्वान् पुरुष ऐसी बात न कहे , जो समस्त प्राणियोंके हृदयमें रोष पैदा करनेवाली हो । ऐश्वर्यकी सिद्धिके लिये दोनों संध्याओंके समय अग्निहोत्रकर्म अवश्य करे । जो दोनों समय अग्निहोत्र करनेमें असमर्थ हो , वह एक ही समय सूर्य और अग्निको विधिपूर्वक दी हुई आहुतिसे संतुष्ट करे । चावल , धान्य , घी , फल , कंद तथा हविष्य - इनके द्वारा विधिपूर्वक स्थालीपाक बनाये तथा यथोचित रीतिसे सूर्य और अग्निको अर्पित करे । यदि हविष्यका अभाव हो तो प्रधान होममात्र करे । सदा सुरक्षित रहनेवाली अग्निको विद्वान् पुरुष अजस्रकी संज्ञा देते हैं । अथवा संध्याकालमें जपमात्र या सूर्यकी वन्दनामात्र कर ले । आत्मज्ञानकी इच्छावाले तथा धनार्थी पुरुषोंको भी इस प्रकार विधिवत् उपासना करनी चाहिये । जो सदा ब्रह्मयज्ञमें तत्पर होते हैं , देवताओंकी पूजामें लगे रहते हैं , नित्य अग्निपूजा एवं गुरुपूजामें अनुरक्त होते हैं तथा ब्राह्मणोंको तृप्त किया करते हैं , वे सब लोग स्वर्गलोक के भागी होते हैं ।

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