Type Here to Get Search Results !

संसार में सबसे बड़ा डर है मृत्यु का


सूतजी कहते हैं , ऋषियों ! संसार में सबसे बड़ा डर है मृत्यु का । मरने का भय प्रत्येक प्राणी को भयाक्रान्त रखता है और इसका नाम है - मृत्युलोक । जो आया है , उसका जाना सुनिश्चित है । ' संसरति इति संसार : यह सरकता रहता है , खिसकता रहता है । कोई कितना भी पकड़ने का प्रयास करें , यह किसी की पकड़ में नहीं आता । तो संसार सरक रहा है और हम चाहते हैं कि ऐसा ही बना रहे । हमारे साथ और हमारे चाहने पर भी जब हमसे खिसक जाता है , तो हमें बड़ा कष्ट होता है । इस संसारभय को समाप्त करने के लिए महाभागवत श्रीशुकदेवजी महाराज ने श्रीमद्भागवतसंहिता को कलिकाल में प्रकट किया । 

कालव्यालमुखग्रासत्रासनिर्णाशहेतवे । 
श्रीमद्भागवतं शास्त्रं कलौ कीरेण भाषितम् ॥ 

तोता बड़ा मीठा बोलता है । किन्तु बोलता वही है , जो उसे सिखाया जाता है । तो श्रीशुकदेवजी महाराज भी जगत् में कल्याणकारी भागवतरूपी फल प्रदान तो किया , पर यह मनमुखी फल नहीं है । उन्हें भी आचार्यपरम्परा से जो प्राप्त हुआ , वही उन्होंने संसार को दिया । जब महाराज परीक्षित के सामने मृत्यु का भय उपस्थित हुआ , सात दिन में मरना सुनिश्चित हो गया ; तो वे अपने कल्याण का मार्ग खोजने लगे । उसी समय महामुनि शुकदेवजी ने ही श्रीमद्भागवतसंहिता के द्वारा परीक्षित को भयमुक्त कर दिया । जैसे ही गंगा के तट पर शुकदेवजी भागवतसंहिता का प्रवचन करने के लिए विराजमान हुए , तो देवताओं को पता चल गया । 
सुधाकुम्भं गृहीत्वैव देवास्तत्र समागमन् ( भा.मा. 1/13 ) 
सभी देवतालोग अमृत का कलश लेकर आये और शुकदेवजी को प्रणाम करके अमृत का कलश सामने रख दिया । देवता बोले , महाराज ! हमने जैसे सुना कि परीक्षित के सामने मृत्यु का भय उपस्थित हुआ है , इसलिए आप उन्हें कथा सुनाने जा रहे हैं । महाराजजी ! अमृत का कलश हम ले आयें हैं । परीक्षित को यह अमृत पिला दीजिये , तो वह मृत्युभय से मुक्त हो जायेंगे । शुकदेवजी को सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि देवतालोग इतने गये । घाटे का सौदा देवता कभी नहीं करते । आज अपना अमृत रख दिया सामने कि ले लीजिए महाराज ! परीक्षित को पिला दीजिए और इसके बदले में हम यह भागवतामृत चाहते हैं । शुकदेवजी हँसते हुए बोले , अरे देवताओं ! तुम लोग श्रद्धा से श्रोता बनकर आते , तो मैं अवश्य सुनाता । पर तुम तो सौदागर बनकर आये हो । सौदागर ही नहीं , अपितु ठग बनकर आये हो । क्योंकि कोई काँच का टुकड़ा देकर बदले में करोड़ों की कीमती बहुमूल्य मणि माँगे , तो उसे सरासर ठग ही कहा जायेगा । कहाँ काँच का टुकड़ा और कहाँ लाखों की मणि ? देवताओं ! तुम्हारा अमृत काँच है और मेरा कथामृत करोड़ों की मणि है । विनिमय बराबर की वस्तुओं का होता है । पर काँच और मणि की तो कोई बराबरी नहीं है , इसलिए तुम ठग हो । क्व सुधा क्व कथा लोके क्व काचः क्व मणिर्महान् । ब्रहारातो विचार्यैवं देवाजहास अभक्तांस्तांश्च विज्ञाय न ददौ स कथामृतम् श्रीमद्भागवती वार्ता सुराणामपि दुर्लभा ॥ सूतजी कहते हैं , हे ऋषियों ! यह देवदुर्लभ कथामृत है , क्योंकि देवताओं को शुकदेवजी ने डाँटकर भगा दिया , पर नहीं दिया । विचार कीजिए कि कथामृत और सुधामृत में कौन - सा अमृत श्रेष्ठ है ? सुधामृत का यह वैशिष्ट्य है बड़े - बड़े पुण्यात्मा जब इस मृत्युलोक से देह त्यागकर स्वर्गलोक में पहुँचते हैं , तब यह प्राप्त होता है । इसके विरुद्ध , कथामृत की यह विशेषता है कि कथामृत के लिए तो कोई पुण्यात्मा हो , दुष्टात्मा हो , पतितात्मा हो , या पापात्मा हो - कोई कैसा भी हो , यह अमृत सबको पिलाया जाता है और सबके लिए सुलभ है । तो पहली विशेषता यह सिद्ध हुई कि स्वर्ग का सुधामृत पक्षपाती है ( भेदभाव करता है ) और हरिकथामृत निष्पक्ष है , जो आवे सबको मिलता है , अत : अभेदवादी है । दूसरी विशेषता क्या है कि स्वर्ग का अमृत पीने वाले देवताओं के शनैः - शनैः सुकृत क्षीण होते चले जाते हैं और पुण्य समाप्त होते ही वह धरातल पर गिर पड़ते हैं । क्षीणे पुण्ये मृत्युलोकं विशन्ति हरिकथामृत की विशेषता है कि ' कल्मषापहम् ' - हरिकथामृत पापों को नष्ट करने वाला है । स्वर्ग का सुधामृत पुण्यों को क्षीण करने वाला और हरिकथामृत पापों को क्षीण करने वाला है । एक ओर स्वर्ग का अमृत पुण्यों को क्षीण करके ऊपर से नीचे गिराता है । इसके विपरीत दूसरी ओर , हरिकथामृत पाप व कल्मषों को नष्ट करके श्रीहरि के परमपद को प्रदान करवाता है । अब आप स्वयं ही निर्णय करें कि कौन - सा अमृत श्रेष्ठ माने ? स्वर्ग सुधामृत दीर्घजीवी बनाता है , पर हरिकथामृत दिव्यजीवी बनाता है । स्वर्ग का सुधामृत अमरत्व प्रदान करता है , पर हरिकथामृत अभयत्व प्रदान करता है ।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

Top Post Ad

Below Post Ad