
सौर मासिक पंचांग के अनुसार, जब सूर्य एक राशि में संचरण करते हुए
दूसरी राशि में प्रवेश करता है तो उसे संक्रांति कहा जाता है। इस तरह से एक साल
में बारह संक्रांतियां आती हैं। भाद्रपद (भादो) का महीना, जिसे सिंह संक्रांति के रूप में भी
जाना जाता है, उत्तराखंड
में घी संक्रांति या ओल्गी संक्रांति के रूप में मनाया जाता है। यह वास्तव में
कृषि और पशुपालन से जुड़ा एक लोक पारम्परिक त्योहार है। बारिश के मौसम में उगाई
जाने वाली फसलों में से सुन्दर दिखनेवाली
बालियां आने लगती हैं। किसान अच्छी फसलों की कामना करते हैं अनाज के
बालियों को घर के मुख्य दरवाजे पर या फिर
गोबर से चिपकाया जाता है। बारिश में जानवरों को बहुत सारी हरी घास मिलती है।
माखन-घी भी बहुतायत में पाया जाता है। इसलिए इस दिन घी का इस्तेमाल जरूर किया जाता
है। ऐसा कहा जाता है कि यदि इस दिन जो घी
नहीं खाएगा उसे अगले जन्म में घोंघे के रूप में जन्म लेना पड़ता है। इस दिन घी का
उपयोग करके शारीरिक और मानसिक शक्ति में वृद्धि को उत्पन्न करता है।
इस दिन का मुख्य व्यंजन बेडू रोटी है (जो उरद
की दाल भिगो कर और उसे पीस कर बनाई गई
पिट्ठी से भरवाँ रोटी बनती है ) और घी में डुबोकर खाई जाती है अरबी के बिना खिले
पत्ते जिन्हें गाबा कहते हैं उसकी सब्जी
बनती है छोटे बच्चों के सर पर घी लगाया
जाता है
यद्यपि इस त्यौहार की उत्पत्ति कृषि और पशुपालन
से हुई है, तथापि, राजाओं के समय में प्रजा अपने राजा को
इस अवसर पर भेंट -उपहार दिया करती थी इस अवसर पर सब्जियां, मौसमी फल, घी आदि भेंट दी जाती थी कारीगर, कारीगर, लोहार, बढ़ई आदि भी अपने स्वयं के हस्तशिल्प
के साथ बनाई गई वस्तुओं को देते थे और उन्हें धन धान्य के रूप में पुरस्कृत किया
जाता था। अर्थात्, जो लोग खेती और पशुपालन नहीं करते थे, वे भी इस त्योहार से जुड़े रहे क्योंकि
ये दोनों व्यवसाय इस श्रेणी के घर में इस्तेमाल होने वाले उपकरणों को बनाने के लिए
उपयोग किए जाते थे। घर का निर्माण हो या हल, कुड़ली। दतौली जैसे उपकरण या बर्तन, बिनौली जैसे छोटे उपकरण। इस उपहार को
देने की प्रथा को ओल्गी कहा जाता है। इसीलिए इस संक्रांति को ओलगिया संक्रांति भी
कहा जाता है। । समाज के हर वर्ग की विशेषता और महत्व का सम्मान किया जाता है और
सभी इस त्योहार को एक साथ मनाते हैं!





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