
ऋषि बोले - मुने ! हमने पहले से यह बात सुन रखी है कि भगवान् शिव का नैवेद्य नहीं ग्रहण करना चाहिये। इस विषय में शास्त्र का निर्णय क्या है, यह
बताइये। साथ ही बिल्व का माहात्म्य भी
प्रकट कीजिये। सूतजी ने कहा - मुनियो! आप
शिव सम्बन्धी व्रत
का पालन करनेवाले हैं। अतः आप सबको शतशः धन्यवाद
है। मैं प्रसन्नतापूर्वक सब कुछ बताता हूँ आप सावधान होकर सुनें। जो
भगवान् शिव का भक्त है बाहर – भीतर से पवित्र
और शुद्ध है उत्तम
व्रत का पालन करने वाला तथा दृढ़ निश्चय से युक्त है वह शिव – नैवेद्य का अवश्य भक्षण करे। भगवान् शिव का नैवेद्य अग्राह्य है इस
भावना को मन से
निकाल दे। शिव के नैवेद्य को देख लेने मात्र से भी सारे पाप दूर भाग जाते हैं उसको खा लेने पर तो करोड़ों पुण्य अपने भीतर आ जाते
हैं। आये हुए शिव –
नैवेद्य को सिर झुका कर प्रसन्नता के साथ ग्रहण करे और प्रयत्न कर के शिव – स्मरण पूर्वक उसका भक्षण करे आये हुए शिव – नैवेद्य को जो यह कह कर कि मैं
इसे दूसरे समयमें ग्रहण करूँगा लेने में
विलम्ब कर देता है , वह मनुष्य
निश्चय ही पाप से बँध
जाता है। जिसने शिव की दीक्षा ली हो उस शिव भक्त के लिये यह शिव - नैवेद्य अवश्य
भक्षणीय है - ऐसा कहा जाता है। शिव की दीक्षा से
युक्त शिव भक्त पुरुष के लिये सभी शिव लिंगों का
नैवेद्य शुभ एवं महाप्रसाद है अतः वह उसका अवश्य भक्षण करे। परंतु जो अन्य
देवताओं की दीक्षा से
युक्त हैं और शिव
भक्ति में भी
मन को लगाये हुए हैं उनके
लिये शिव - नैवेद्य – भक्षण के विषयमें क्या
निर्णय है- इसे आपलोग प्रेम पूर्वक सुनें।
ब्राह्मणो! जहाँ से शालग्राम शिला की उत्पत्ति होती है
वहाँ के उत्पन्न लिंग में रस लिंग (पारदलिंग) में पाषाण, रजत तथा सुवर्ण से निर्मित लिंग में देवताओं तथा सिद्धोंद्वारा प्रतिष्ठित लिंग में केसर - निर्मित लिंग में स्फटिकलिंग में रत्ननिर्मित लिंग में तथा समस्त ज्योतिर्लिंगों में विराजमान भगवान् शिव के नैवेद्य का भक्षण चान्द्रायण व्रत के स्तुति की है । फिर जिस किसी तरहसे इसकी महिमा
कैसे जानी जा सकती है। तीनों लोकों में जितने पुण्य -
तीर्थ प्रसिद्ध हैं वे सम्पूर्ण तीर्थ बिल्व के मूलभाग में
निवास करते हैं। जो पुण्यात्मा मनुष्य बिल्व के मूल में लिंग स्वरूप अविनाशी महादेवजी का पूजन करता है वह निश्चय ही शिवपद को प्राप्त होता है। जो
बिल्व की जड़के पास जल से अपने मस्तकको सींचता है वह
सम्पूर्ण तीर्थों
में स्नान का फल
पा लेता है और वही इस भूतलपर पावन माना जाता है। इस
बिल्वकी जड़ के
परम उत्तम थाले को जल से भरा हुआ देखकर महादेवजी
पूर्णतया संतुष्ट होते हैं। जो मनुष्य गन्ध पुष्प आदि से बिल्वके मूलभाग का पूजन करता है वह शिवलोक को पाता
है और इस लोकमें भी उसकी सुख - संतति बढ़ती है। जो बिल्व की जड़ के समीप आदर पूर्वक दीपावली जला कर रखता है वह तत्त्वज्ञान से सम्पन्न हो भगवान् महेश्वर में मिल जाता है। जो बिल्व की शाखा
थामकर हाथ से उसके नये - नये पल्लव उतारता और उनसे उस
बिल्वकी पूजा करता है वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। जो बिल्वकी जड़के समीप
भगवान शिव में अनुराग रखने वाले एक भक्त को भी
भक्ति पूर्वक भोजन कराता है उसे
कोटिगुना पुण्य प्राप्त होता है। जो बिल्व की जड़के पास शिवभक्त को खीर और घृत से युक्त अन्न देता है वह कभी दरिद्र नहीं होता। ब्राह्मणो! इस प्रकार मैंने सांगोपांग शिवलिंग - पूजनका वर्णन किया ।
यह प्रवृत्तिमार्गी तथा निवृत्तिमार्गी पूजकों के भेद से दो
प्रकार का होता है। प्रवृत्तिमार्गी लोगों के लिये पीठ - पूजा इस भूतलपर सम्पूर्ण अभीष्ट
वस्तुओं को देनेवाली होती है। प्रवृत्त पुरुष सुपात्र
गुरु आदिके द्वारा ही सारी पूजा सम्पन्न करे और अभिषेकके अन्तमें अगहनीके चावल से बना हुआ नैवेद्य निवेदन करे। पूजा के अन्तमें शिवलिंग को शुद्ध सम्पुट में विराजमान करके घर के भीतर कहीं अलग रख दे। निवृत्तिमार्गी
उपासकोंके लिये हाथ पर ही शिवपूजन का विधान है। उन्हें भिक्षा आदि से प्राप्त हुए अपने भोजन को ही नैवेद्यरूप में निवेदित कर देना चाहिये। निवृत्त पुरुषों के लिये सूक्ष्म लिंग ही श्रेष्ठ बताया जाता है।
वे विभूति से पूजन करें और विभूति को ही नैवेद्यरूप से निवेदित भी करें। पूजा करके उस
लिंगको सदा अपने मस्तकपर धारण करें। जो शिव कथा को पढ़ता है अथवा श्रवण करता है वह परम पवित्र पुण्यमय शिव धाम को प्राप्त होता है|
(शिवपुराण अध्याय २१-२२)





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