
प्रदोष व्रत एवं व्रत के उद्यापन की विधि
व्रत के उद्यापन की विधि
प्रातः स्नानादि कार्य से निवृत होकर रंगीन वस्त्रों से मण्डप बनावें । फिर उस मण्डप में शिव - पार्वती की प्रतिमा स्थापित करके विधिवत पूजन करें तदनन्तर शिव - पार्वती के उद्देश्य से खीर से अग्नि में हवन करना चाहिए । हवन करते समय “ ॐ उमा सहित - शिवायै नमः " मन्त्र से १०८ बार आहुति देनी चाहिए । इसी “ ॐ नमः शिवाय " के उच्चारण से शंकर जी के निमित्त आहुति प्रदान करें । हवन के अन्त में किसी धार्मिक व्यक्ति को सामर्थ्य के अनुसार दान देना चाहिए । ऐसा करने के बाद ब्राह्मण को भोजन दक्षिणा से सन्तुष्ट करना चाहिए । ' व्रत पूर्ण हो ' ऐसा वाक्य ब्राह्मणों द्वारा कहलवाना चाहिए । ब्राह्मणों की आज्ञा पाकर अपने बन्धु बान्धवों को साथ में लेकर मन में भगवान शंकर का स्मरण करते हुए व्रती को भोजन करना चाहिए । इस प्रकार उद्यापन करने से व्रती पुत्र - पौत्रादि से युक्त होता है तथा आरोग्य लाभ करता है । इसके अतिरिक्त वह अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता एवं सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है । ऐसा स्कन्द पुराण गया है।
कथा प्रारम्भ
पूर्वकाल में एक पुत्रवती ब्राह्मणी थी। उसके दो पुत्र थे। वह ब्राह्मणी बहुत निर्धन थी। दैवयोग थे से उसे एक दिन महर्षि शाण्डिल्य के दर्शन हुए। महर्षि के मुख से प्रदोष व्रत में शिव पूजन की महिमा सुनकर उस ब्राह्मणी ने ऋषि से पूजन की विधि पूछी। उसकी श्रद्धा और आग्रह से ऋषि उस ब्राह्मणी को शिव पूजन का उपर्युक्त विधान बतलाया और उस ब्राह्मणी से कहा- ' तुम अपने दोनों पुत्रों से शिव की पूजा कराओ। इस व्रत के प्रभाव से तुम्हें एक वर्ष के पश्चात् पूर्ण सिद्धि प्राप्त होगी। ”उस ब्राह्मणी ने महर्षि शाण्डिल्य के वचन सुनकर उन बालकों के सहित नतमस्तक होकर मुनि चरणों में प्रणाम किया और बोली- ' हे ब्राह्मण ! आज मैं आपके दर्शन से धन्य हो गई हूँ । मेरे ये दोनों कुमार आपकी शरण में हैं । यह शुचिव्रत मेरा पुत्र है और यह राजसुत मेरा धर्मपुत्र है। ये दोनों बालक आपके सेवक हैं । आप मेरा उद्धार कीजिए।
'उस ब्राह्मणी को शरणागत जानकर मुनि ने मधुर वचनों द्वारा दोनों कुमारों को शिवजी की आराधना विधि बताई। तदनन्तर वे दोनों बालक और ब्राह्मणी मुनि को प्रणाम कर शिव मन्दिर में चले गए। उस दिन से वे दोनों बालक मुनि के कथनानुसार नियमपूर्वक प्रदोष काल में शिवजी की आराधना करने लगे । पूजा करते हुए उन दोनों को चार महीने बीत गए । एक दिन राजसुत की अनुपस्थिति में शुचिव्रत स्नान करने नदी किनारे चला गया और वहाँ जल - क्रीड़ा करने लगा। संयोग से उसी समय उसे नदी की दरार में चमकता हुआ धन का बड़ा कलश भी दिखाई पड़ा। उस धनपूरित कलश को देखकर शुचिब्रत बहुत ही प्रसन्न हुआ। उस कलश को वह सिर पर रख कर घर ले आया । कलश को भूमि पर रखकर वह अपनी माता से बोला- ' हे माता , शिवजी की महिमा तो देखो भगवान ने इस घड़े के रूप में मुझे अपार सम्पत्ति दी है।
'उसकी माता घड़े को देखकर आश्चर्य करने नगी और राजसुत को बुलाकर कहा- ' बेटे मेरी बात सुनो । तुम दोनों इस धन को आपस में आधा - आधा बांट लो। ” माता की बात सुनकर शुचिव्रत अत्यन्त प्रसन्न हुआ परन्तु राजसुत ने अपनी असहमति प्रकट करते हुए कहा- ' हे माँ यह धन तेरे पुत्र के पुण्य से उसे प्राप्त हुआ है। मैं इसमें किसी प्रकार हिस्सा लेना नहीं चाहता । क्योंकि अपने किये हुए कर्म का फल मनुष्य स्वयं ही भोगता है । ' इस प्रकार शिव पूजन करते हुए एक ही घर में उन्हें एक वर्ष व्यतीत हो गया। एक राजकुमार ब्राह्मण के पुत्र के साथ बसंत ऋतु में वनविहार करने के लिये गया। वे दोनों जब साथ - साथ वन में बहुत दूर निकल गये , तो उन्हें वहां पर सैकड़ों गन्धर्व कन्यायें खेलती हुई दिखाई पड़ीं।
ब्राह्मण कुमार उन गन्धर्व कन्याओं को क्रीड़रत देखकर राजकुमार से बोला- ' यहां पर कन्यायें विहार कर रही हैं इसलिए हम लोगों को अब और आगे नहीं जाना चाहिये । क्योंकि वे गन्धर्व कन्यायें शीघ्र ही मनुष्यों के मन को मोहित कर लेती हैं । इसीलिए मैं तो इन कन्याओं से दूर ही रहूँगा । ' परन्तु राजकुमार उसकी बात अनसुनी कर कन्याओं के विहार स्थल में निर्भीक भाव से अकेला ही चला गया। उन सभी गन्धर्व कन्याओं में प्रधान सुन्दरी उस आये हुए राजकुमार को देखकर मन में विचार करने लगी कि कामदेव के समान सुन्दर रूप वाला यह राजकुमार कौन है ? उस राजकुमार के साथ बातचीत करने के उद्देश्य से उस सुन्दरी ने अपनी सखियों से कहा- ' सखियों तुम लोग निकट के बन में जाकर अशोक , चम्पक , मौलसिरी आदि के ताजे फूल तोड़ लाओ । तब तक मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में यहीं रुकी रहूँगी । ' उस गन्धर्व कुमारी की बात सुनते ही सब सखियाँ वहाँ से चली गई । सखियों के जाने के बाद वह गन्धर्व कन्या उस राजकुमार को स्थिर दृष्टि से देखने लगी । उन दोनों में परस्पर प्रेम का संचार होने लगा।
गन्धर्व कन्या ने राजकुमार को बैठने के लिये आसन दिया । प्रेमालाप के कारण राजकुमार के सहवास के लिये वह सुन्दरी व्याकुल हो उठी और राजकुमार से प्रश्न करने लगी- ' हे कमल के समान नेत्रों वाले , आप किस देश के रहने वाले हैं ? आपका यहाँ आना क्योंकर हुआ ? " गन्धर्व कन्या की बात सुनकर राजकुमार ने उत्तर दिया- ' मैं विदर्भराज का पुत्र हूँ।
मेरे माता - पिता स्वर्गवासी हो चुके हैं । शत्रुओं ने मुझसे मेरा राज्य हरण कर लिया है । ' राजकुमार ने अपना परिचय देकर उस गन्धर्व कन्या से पूछा- ' आप कौन हैं ? किसकी पुत्री हैं ? और इस वन में किस उद्देश्य से आई हैं ? आप कहना चाहती हैं । ' राजकुमार की बात सुनकर गन्धर्व कन्या ने कहा- ' मैं विद्रविक नामक गन्धर्व की पुत्री अंशुमती हूँ । आपको देखकर आपसे बात - चीत करने के लिये ही यहाँ पर सखियों का साथ छोड़कर रह गई हूँ । मैं गान विद्या में बहुत ही निपुण हूँ । मेरे गान पर सभी देवांगनायें रीझ जाती हैं । मैं चाहती हूँ कि आपका और मेरा प्रेम सर्वदा बना रहे । इतनी बात कहकर उस गन्धर्व कन्या ने अपने गले का बहुमूल्य मुक्ताहार राजकुमार के गले में डाल दिया । वह हार उन दोनों के प्रेम का प्रतीक बन गया । इसके पश्चात राजकुमार ने उस कन्या से कहा- ' हे सुन्दरी ! तुमने जो कुछ कहा है , वह सब सत्य है । लेकिन आप राजविहीन राजकुमार पास कैसे रह सकेंगी ? आप अपने पिता की अनुमति के लिये बिना मेरे साथ कैसे चल सकेंगी ? " राजकुमार की बात पर वह कन्या मुस्करा कर कहने लगी- ' जो कुछ भी हो , मैं अपनी इच्छा से आपका वरण करूंगी । अब आप परसों प्रातःकाल यहाँ पर आइयेगा । मेरी बात कभी झूठ नहीं हो सकती।
'गन्धर्व कन्या ऐसा कहकर पुनः अपनी सखियों के पास चली गई । इधर वह राजकुमार भी शुचिब्रत के पास जा पहुंचा और उसने अपना सारा वृत्तांत कह सुनाया इसके बाद वे दोनों घर को लौट गये । घर पहुंच कर उन लोगों ने ब्राह्मणी से सब हाल कहा , जिसे सुनकर वह ब्राह्मणी भी हर्षित हुई । • गन्धर्व कन्या द्वारा निश्चित दिन को वह राजकुमार शुचिब्रत के साथ उसी वन में पहुंचा । वहाँ पहुंच कर उन लोगों ने देखा गन्धर्वराज अपनी पुत्री अंशुमती के साथ उपस्थित होकर प्रतीक्षा में बैठे हैं।
गन्धर्व ने उन दोनों कुमारों का अभिनन्दन करके उन्हें सुन्दर आसन पर बिठाया और राज कहा- ' मैं परसों कैलाशपुरी को गया था। वहाँ पर भगवान शंकर पार्वती सहित विराजमान थे। उन्होंने मुझे अपने पास बुलाकर कहा- पृथ्वी पर राज्यच्युत होकर धर्मगुप्त नामक राजकुमार घूम रहा है। शत्रुओं ने उसके वंश को नष्ट - भ्रष्ट कर दिया है। वह कुमार सदा ही भक्तिपूर्वक मेरी सेवा किया करता है इसलिये तुम उसकी सहायता करो, जिससे वह अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सके । इसलिये मैं भगवान शिव की आज्ञा से अपनी पुत्री अंशुमती आपको सौंपता हूँ। मैं शत्रुओं के हाथ में गये हुए आपके राज्य को वापिस दिला दूंगा। आप इस कन्या के साथ शिवलोक में आने पर भी मेरी पुत्री इसी शरीर से आपके साथ रहेगी। 'इतना कहकर गन्धर्वराज ने हजार वर्षों तक सुख भोगकर अपनी पुत्री का विवाह राजकुमार के साथ कर दिया ।
दहेज में अनेक बहुमूल्य रत्न, वस्त्र आदि प्रदान किये। इसके अतिरिक्त दास - दासियाँ तथा शत्रुओं पर विजय पाने के लिये गन्धर्वो की चतुरंगिणी सेना भी दी । राजकुमार ने गन्धर्वो की सहायता से शत्रुओं को नष्ट किया और वह अपने नगर में प्रविष्ट हुआ। मंत्रियों ने राजकुमार को सिंहासन पर बैठाकर राज्याभिषेक किया। अब वह राजकुमार राज - सुख भोगने लगा। जिस दरिद्र ब्राह्मणी ने इसका पालन - पोषण किया था उसे ही राजमाता के पद पर आसीन किया गया। वह शुचिब्रत ही उसका छोटा भाई बना। इस प्रकार प्रदोष व्रत में शिव पूजन के प्रभाव से वह राजकुमार दुर्लभ पद को प्राप्त हुआ। जो मनुष्य प्रदोषकाल में अथवा नित्य ही इस कथा को श्रवण करता है , वह निश्चय ही सभी कष्टों से मुक्त हो जाता है और अंत में वह परम पद का अधिकारी बनता है।
सप्ताहिक दिवसानुसार प्रदोष व्रत के विषय में गया है कि -
रविवार के दिन प्रदोष व्रत आप रखते हैं तो सदा नीरोग रहेंगे।
सोमवार के दिन व्रत करने से आपकी इच्छा फलित होती है।
मंगलवार को प्रदोष व्रत रखने से रोग से मुक्ति मिलती है और आप स्वस्थ रहते हैं।
बुधवार के दिन इस व्रत का पालन करने से सभी प्रकार की कामना सिद्ध होती है। .
बृहस्पतिवार के व्रत से शत्रु का नाश होता है।
शुक्र प्रदोष व्रत सेसौभाग्य की वृद्धि होती है।
शनि प्रदोष व्रत से पुत्र की प्राप्ति होती है ।
बहुत ही ज्ञानबर्धक पोस्ट, साधुवाद
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