
संध्याकी तपस्या , उसके द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति तथा उससे संतुष्ट हुए शिवका उसे अभीष्ट वर दे मेधातिथिके यज्ञमें भेजना ब्रह्माजी
ब्रह्माजी कहते हैं - मेरे पुत्रोंमें श्रेष्ठ महाप्राज्ञ नारद ! तपस्याके नियमका उपदेश दे जब वसिष्ठजी अपने घर चले गये , तब तपके उस विधानको समझकर संध्या मन- ही - मन बहुत प्रसन्न हुई । फिर तो वह सानन्द मनसे तपस्विनीके योग्य वेष बनाकर बृहल्लोहित सरोवरके तटपर ही तपस्या करने लगी । वसिष्ठजीने तपस्याके लिये जिस मन्त्रको साधन बताया था उसीसे उत्तम भक्तिभावके साथ वह भगवान् शंकरकी आराधना करने लगी । उसने भगवान् शिवमें अपने चित्तको लगा दिया और एकाग्र मनसे वह बड़ी भारी तपस्या करने लगी उस तपस्यामें लगे हुए उसके चार युग व्यतीत हो गये । तब भगवान् शिव उसकी तपस्यासे संतुष्ट हो बड़े प्रसन्न हुए तथा बाहर भीतर और आकाशमें अपने स्वरूपका दर्शन कराकर जिस रूपका वह चिन्तन करती थी , उसी रूपसे उसकी आँखोंके सामने प्रकट हो गये ।
उसने मनसे जिनका चिन्तन किया था उन्हीं प्रभु शंकरको अपने सामने खड़ा देख वह अत्यन्त आनन्दमें निमग्न हो गयी । भगवान्का मुखारविन्द बड़ा प्रसन्न दिखायी देता था । उनके स्वरूपसे शान्ति बरस रही थी । वह सहसा भयभीत हो सोचने लगी कि ' मैं भगवान् हरसे क्या कहूँ ? किस तरह इनकी स्तुति करूँ ? ' इसी चिन्तामें पड़कर उसने अपने दोनों नेत्र बंद कर लिये । नेत्र बंद कर लेनेपर भगवान् शिवने उसके हृदयमें प्रवेश करके उसे दिव्य ज्ञान दिया , दिव्य वाणी और दिव्य दृष्टि और दिव्य वाणी प्राप्त हो दिव्य दृष्टि प्रदान की । जब उसे दिव्य ज्ञान गयी , तब वह कठिनाईसे ज्ञात होनेवाले जगदीश्वर शिवको प्रत्यक्ष देखकर उनकी स्तुति करने लगी ।
संध्या बोली - जो निराकार और परम ज्ञानगम्य हैं , जो न तो स्थूल हैं , न सूक्ष्म हैं और न उच्च ही हैं तथा जिनके स्वरूपका योगीजन अपने हृदयके भीतर चिन्तन करते हैं , उन्हीं लोकस्रष्टा आप भगवान् शिवको नमस्कार है । जिन्हें शर्व कहते हैं , जो शान्तस्वरूप , निर्मल , निर्विकार और ज्ञानगम्य हैं , जो अपने ही प्रकाशमें स्थित हो प्रकाशित होते हैं , जिनमें विकारका अत्यन्त अभाव है , जो आकाशमार्गकी भाँति निर्गुण , निराकार बताये गये हैं तथा जिनका रूप अज्ञानान्धकारमार्गसे सर्वथा परे है , उन नित्यप्रसन्न आप भगवान् शिवको मैं प्रणाम करती हूँ । जिनका रूप एक ( अद्वितीय ) , शुद्ध , बिना मायाके प्रकाशमान , सच्चिदानन्द- मय , सहज निर्विकार , नित्यानन्दमय , सत्य , ऐश्वर्यसे युक्त , प्रसन्न तथा लक्ष्मीको देनेवाला है , उन आप भगवान् शिवको नमस्कार है । जिनके स्वरूपकी ज्ञानरूपसे ही उद्भावना की जा सकती है , जो इस जगत्से सर्वथा सबको पार परम भिन्न है एवं सत्त्वप्रधान , ध्यानके योग्य , आत्मस्वरूप , सारभूत , लगानेवाला तथा पवित्र वस्तुओंमें भी पवित्र है , उन आप महेश्वरको मेरा नमस्कार है । आपका जो स्वरूपशुद्ध , मनाहर , रत्नमय आभूषणोंसे विभूषित तथा स्वच्छ कर्पूरके समान गौरवर्ण है , जिसने अपने हाथों में वर , अभय , शूल और मुण्ड धारण कर रखा है , उस दिव्य , चिन्मय , सगुण , साकार विग्रहसे सुशोभित आप योगयुक्त भगवान् शिवको नमस्कार है । आकाश , पृथ्वी , दिशाएँ , जल , तेज तथा काल - ये जिनके रूप हैं , उन आप परमेश्वरको नमस्कार है ।
प्रधान ( प्रकृति ) और पुरुष जिनके शरीररूपसे प्रकट हुए हैं अर्थात् वे दोनों जिनके शरीर हैं , इसीलिये जिनका यथार्थ रूप अव्यक्त ( बुद्धि आदिसे परे ) है , उन भगवान् शंकरको बारंबार नमस्कार है । जो ब्रह्मा होकर जगत्की सृष्टि करते हैं , जो विष्णु होकर संसारका पालन करते हैं तथा जो रुद्र होकर अन्तमें इस सृष्टिका संहार करेंगे , उन्हीं आप भगवान् सदाशिवको बारंबार नमस्कार है । जो कारणके भी कारण हैं , दिव्य अमृतरूप ज्ञान तथा अणिमा आदि ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले हैं , समस्त लोकान्तरोंका वैभव देनेवाले हैं , स्वयं प्रकाशरूप हैं तथा प्रकृतिसे भी परे हैं , उन परमेश्वर शिवको नमस्कार है , नमस्कार है यह जगत् जिनसे भिन्न नहीं कहा जाता जिनके चरणोंसे पृथ्वी तथा अन्यान्य अंगोंसे सम्पूर्ण दिशाएँ , सूर्य , चन्द्रमा , कामदेव एवं अन्य देवता प्रकट हुए हैं और जिनकी नाभिसे अन्तरिक्षका आविर्भाव हुआ है उन्हीं आप भगवान् शम्भुको मेरा नमस्कार । प्रभो ! आप ही सबसे उत्कृष्ट परमात्मा , आप ही नाना प्रकारकी विद्याएँ हैं , आप ही हर ( संहारकर्ता ) हैं , आप ही सद्ब्रह्म तथा परब्रह्म हैं , आप सदा विचारमें तत्पर रहते हैं । जिनका न आदि है , न मध्य है और अन्त ही है , जिनसे सारा जगत् उत्पन्न हुआ है तथा जो मन और वाणीके विषय नहीं हैं , उन महादेवजीकी स्तुति मैं कैसे कर सकूँगी ? ब्रह्मा आदि देवता तथा तपस्याके धनी मुनि भी जिनके रूपोंका वर्णन नहीं कर सकते , उन्हीं परमेश्वरका वर्णन अथवा स्तवन मैं कैसे कर सकती हूँ ? प्रभो ! आप निर्गुण हैं , मैं मूढ़ स्त्री आपके गुणोंको कैसे जान सकती हूँ ? आपका रूप तो ऐसा है , जिसे इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता और असुर भी नहीं जानते हैं । महेश्वर ! आपको नमस्कार है । तपोमय ! आपको नमस्कार देवेश्वर शम्भो ! मुझपर प्रसन्न होइये । आपको बारंबार मेरा नमस्कार है ।
ब्रह्माजी कहते हैं - नारद ! संध्याका यह स्तुतिपूर्ण वचन सुनकर उसके द्वारा भलीभाँति प्रशंसित हुए भक्तवत्सल परमेश्वर शंकर बहुत प्रसन्न हुए । उसका शरीर वल्कल और मृगचर्मसे ढका हुआ था । मस्तकपर पवित्र जटाजूट शोभा पा रहा था । उस समय पालेके मारे हुए कमलके समान उसके कुम्हलाये हुए मुँहको देखकर भगवान् हर दयासे द्रवित हो उससे इस प्रकार बोले । महेश्वरने कहा - भद्रे ! मैं तुम्हारी इस उत्तम तपस्यासे बहुत प्रसन्न हूँ । शुद्ध बुद्धिवाली देवि ! तुम्हारे इस स्तवनसे भी मुझे बड़ा संतोष प्राप्त हुआ है । अतः इस समय अपनी इच्छाके अनुसार कोई वर माँगो । जिस वरसे तुम्हें प्रयोजन हो तथा जो तुम्हारे मनमें हो , उसे मैं यहाँ अवश्य पूर्ण करूँगा । तुम्हारा कल्याण हो । मैं तुम्हारे व्रत - नियमसे बहुत प्रसन्न हूँ । प्रसन्नचित्त महेश्वरका यह वचन सुनकर अत्यन्त हर्षसे भरी हुई संध्या उन्हें बारंबार प्रणाम करके बोली - महेश्वर ! यदि आप मुझे प्रसन्नतापूर्वक वर देना चाहते हैं , यदि मैं वर पानेके योग्य हूँ ; यदि पापसे शुद्ध हो गयी हूँ तथा देव ! यदि इस समय आप मेरी तपस्यासे प्रसन्न हैं तो मेरा माँगा हुआ यह पहला वर सफल करें । देवेश्वर ! इस आकाशमें पृथ्वी आदि किसी भी स्थानमें जो प्राणी हैं , वे सब - के - सब जन्म लेते ही कामभावसे युक्त न हो जायँ । नाथ ! मेरी सकाम दृष्टि कहीं न पड़े । मेरे जो पति हों वे भी मेरे अत्यन्त सुहृद् हों । पतिके अतिरिक्त जो भी पुरुष मुझे सकामभावसे देखे उसके पुरुषत्वका नाश हो जाय - वह तत्काल नपुंसक हो जाय ।
निष्पाप संध्याका यह वचन सुनकर प्रसन्न हुए भक्तवत्सल भगवान् शंकरने कहा - देवि संध्ये ! सुनो । भद्रे ! तुमने जो - जो वर माँगा है , वह तुम्हारी तपस्यासे संतुष्ट होकर मैंने दे दिया । प्राणियोंके जीवनमें मुख्यतः चार अवस्थाएँ होती हैं — पहली शैशवावस्था दूसरी कौमारावस्था , तीसरी यौवनावस्था और चौथी वृद्धावस्था । तीसरी अवस्था प्राप्त होनेपर देहधारी जीव कामभावसे युक्त होंगे । कहीं - कहीं दूसरी अवस्थाके अन्तिम भागमें ही प्राणी सकाम हो जायेंगे । तुम्हारी तपस्याके प्रभावसे मैंने जगत्में सकामभावके उदयकी यह मर्यादा स्थापित कर दी जिससे देहधारी जीव जन्म लेते ही कामासक्त न हो जायँ । तुम भी इस लोकमें वैसे दिव्य सतीभावको प्राप्त करो , जैसा तीनों लोकोंमें दूसरी किसी स्त्रीके लिये सम्भव नहीं होगा । पाणिग्रहण करनेवाले पतिके सिवा जो कोई भी पुरुष सकाम होकर तुम्हारी ओर देखेगा , वह तत्काल नपुंसक होकर दुर्बलताको प्राप्त हो जायगा । तुम्हारे पति महान् तपस्वी तथा दिव्यरूपसे सम्पन एक महाभाग महर्षि होंगे , जो तुम्हारे साथ सात कल्पोंतक जीवित रहेंगे । तुमने मुझसे जो वर माँगे थे , वे सब मैंने पूर्ण कर दिये । अब मैं तुमसे दूसरी बात कहूँगा , जो पूर्वजन्मसे सम्बन्ध रखती है । तुमने पहलेसे यह प्रतिज्ञा कर रखी है कि मैं अग्निमें अपने शरीरको त्याग दूंगी । उस प्रतिज्ञाको सफल करनेके लिये मैं तुम्हें एक उपाय बताता हूँ । उसे निस्संदेह करो । मुनिवर मेधातिथिका एक यज्ञ चल रहा है , जो बारह वर्षोतक चालू रहनेवाला है । उसमें अग्नि पूर्णतया प्रज्वलित है । तुम बिना विलम्ब किये उसी अग्निमें अपने शरीरका उत्सर्ग कर दो । इसी पर्वतकी उपत्यकामें चन्द्रभागा नदीके तटपर तापसाश्रममें मुनिवर मेधातिथि महायज्ञका अनुष्ठान करते हैं । स्वच्छन्दतापूर्वक वहाँ जाओ । मुनि तुम्हें वहाँ देख नहीं सकेंगे । मेरी कृपासे तुम मुनिकी अग्निसे प्रकट हुई पुत्री होओगी । तुम्हारे मनमें जिस किसी स्वामीको प्राप्त करनेकी इच्छा हो , उसे हृदयमें धारणकर , उसीका चिन्तन करते हुए तुम अपने शरीरको उस यज्ञकी अग्निमें होम दो ।
संध्ये ! जब तुम इस पर्वतपर चार युगोंतकके लिये कठोर तपस्या कर रही थी , उन्हीं दिनों उस चतुर्युगीका सत्ययुग बीत जानेपर त्रेताके प्रथम भागमें प्रजापति दक्षके बहुत सी कन्याएँ हुईं । उन्होंने अपनी उन सुशीला कन्याओंका यथायोग्य वरोंके साथ विवाह कर दिया । उनमेंसे सत्ताईस कन्याओंका विवाह उन्होंने चन्द्रमाके साथ किया । चन्द्रमा अन्य सब पत्नियोंको छोड़कर केवल रोहिणीसे प्रेम करने लगे । इसके कारण क्रोधसे भरे हुए दक्षने जब चन्द्रमाको शाप दे दिया , तब समस्त देवता तुम्हारे पास आये । परंतु संध्ये ! तुम्हारा मन तो मुझमें लगा हुआ था , अतः तुमने ब्रह्माजीके साथ आये हुए उन देवताओंपर दृष्टिपात ही नहीं किया तब ब्रह्माजीने आकाशकी ओर देखकर और चन्द्रमा पुनः अपने स्वरूपको प्राप्त करें , यह उद्देश्य मनमें रखकर उन्हें शापसे छुड़ानेके लिये एक नदीकी सृष्टि की , जो चन्द्र या चन्द्रभागा नदीके नामसे विख्यात हुई ।
चन्द्रभागाके प्रादुर्भावकालमें ही महर्षि मेधातिथि यहाँ उपस्थित हुए थे । तपस्याके द्वारा उनकी समानता करनेवाला न तो कोई हुआ है , न है और न होगा ही । उन महर्षिने महान् विधि - विधानके साथ दीर्घकालतक चलनेवाले ज्योतिष्टोम नामक यज्ञका आरम्भ किया है । उसमें अग्निदेव पूर्णरूपसे प्रज्वलित हो रहे हैं । उसी आगमें तुम अपने शरीरको डाल दो और परम पवित्र हो जाओ । ऐसा करनेसे इस समय तुम्हारी वह प्रतिज्ञा पूर्ण हो जायगी । इस प्रकार संध्याको उसके हितका उपदेश देकर देवेश्वर भगवान् शिव वहीं अन्तर्धान हो गये । ( अध्याय ६ )





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