
संध्याकी आत्माहुति , उसका अरुन्धतीके रूपमें अवतीर्ण होकर मुनिवर वसिष्ठके साथ विवाह करना , ब्रह्माजीका रुद्रके विवाहके लिये प्रयत्न और चिन्ता तथा भगवान् विष्णुका उन्हें ' शिवा ' की आराधनाके लिये उपदेश देकर चिन्तामुक्त करना
ब्रह्माजी कहते हैं - नारद ! जब वर देकर भगवान् शंकर अन्तर्धान हो गये , तब संध्या भी उसी स्थानपर गयी , जहाँ मुनि मेधातिथि यज्ञ कर रहे थे । भगवान् शंकरकी कृपासे उसे किसीने वहाँ नहीं देखा।
उसने उस तेजस्वी ब्रह्मचारीका स्मरण किया , जिसने उसके लिये तपस्याकी विधिका उपदेश दिया था। महामुने ! पूर्वकालमें महर्षि वसिष्ठने मुझ परमेष्ठीकी आज्ञासे एक तेजस्वी ब्रह्मचारीका वेष धारण करके उसे तपस्या करनेके लिये उपयोगी नियमोंका उपदेश दिया था । संध्या अपनेको तपस्याका उपदेश देनेवाले उन्हीं ब्रह्मचारी ब्राह्मण वसिष्ठको पतिरूपसे मनमें रखकर उस महायज्ञमें प्रचलित अग्निके समीप गयी । उस समय भगवान् शंकरकी कृपासे मुनियोंने उसे नहीं देखा । ब्रह्माजीकी वह पुत्री बड़े हर्षके साथ उस अग्निमें प्रविष्ट हो गयी । उसका पुरोडाशमय * शरीर तत्काल दग्ध हो गया । उस पुरोडाशकी अलक्षित गन्ध सब ओर फैल गयी ।
अग्निने भगवान् शंकरकी आज्ञासे उसके सुवर्ण - जैसे शरीरको जलाकर शुद्ध करके पुनः सूर्यमण्डलमें पहुँचा दिया । तब सूर्यने पितरों और देवताओं की तृप्तिके लिये उसे दो भागोंमें विभक्त करके अपने रथमें स्थापित कर दिया । मुनीश्वर ! उसके शरीरका ऊपरी भाग प्रातःसंध्या हुआ , जो दिन और रातके बीचमें पड़नेवाली आदिसंध्या है तथा उसके शरीरका शेष भाग सायंसंध्या हुआ , जो दिन और रातके मध्यमें होनेवाली अन्तिम संध्या है ! सायंसंध्या सदा ही पितरोंको प्रसन्नता प्रदान करनेवाली होती है ।
सूर्योदयसे पहले जब अरुणोदय हो- प्राचीके क्षितिजमें लाली छा जाय , तब प्रातःसंध्या प्रकट होती है , जो देवताओंको प्रसन्न करनेवाली है । जब लाल कमलके समान सूर्य अस्त हो जाते हैं , उसी समय सदा सायंसंध्याका पुत्रीको उदय होता है , जो पितरोंको आनन्द प्रदान करनेवाली है । परम दयालु भगवान् शिवने उसके मनसहित प्राणोंको दिव्य शरीरसे युक्त देहधारी बना दिया । जब मुनिके यज्ञकी समाप्तिका अवसर आया , तब वह अग्निकी ज्वालामें महर्षि मेधातिथिको पुत्रीके रूपमें प्राप्त हुई । मुनिने बड़े तपाये हुए सुवर्णकी - सी कान्तिवाली आमोदके साथ उस समय उस ग्रहण किया । मुने ! उन्होंने यज्ञके लिये डर नहलाकर अपनी गोदमें बिठा लिया । शिष्योंसे घिरे हुए महामुनि मेधातिथिको वहाँ बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ । उन्होंने उसका नाम ' अरुन्धती ' रखा । वह किसी भी कारणसे धर्मका अवरोध नहीं करती थी ; अत : उसी गुणके कारण उसने स्वयं यह त्रिभुवन - विख्यात नाम प्राप्त किया । देवर्षे ! यज्ञको समाप्त करके कृतकृत्य हो वे मुनि पुत्रीकी प्राप्ति होनेसे बहुत प्रसन्न थे और अपने शिष्योंके साथ आश्रममें रहकर सदा उसीका लालन - पालन करते थे । देवी अरुन्धती चन्द्रभागा नदीके तटपर तापसारण्यके भीतर मुनिवर मेधातिथिके उस आश्रममें धीरे - धीरे बड़ी होने लगी । जब वह विवाहके योग्य हो गयी , तब मैंने , विष्णु तथा महेश्वरने मिलकर मुझ ब्रह्माके पुत्र वसिष्ठके साथ उसका विवाह करा दिया ।
ब्रह्मा , विष्णु तथा महेशके हाथोंसे निकले हुए जलसे शिप्रा आदि सात परम पवित्र नदियाँ उत्पन्न हुई । मुने ! मेधातिथिकी पुत्री महासाध्वी अरुन्धती समस्त पतिव्रताओंमें श्रेष्ठ थी , वह महर्षि वसिष्ठको पतिरूपमें पाकर उनके साथ बड़ी शोभा पाने लगी । उससे शक्ति आदि शुभ एवं श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए । मुनिश्रेष्ठ ! वह प्रियतम पति वसिष्ठको पाकर विशेष शोभा पाने लगी । मुनि- शिरोमणे ! इस प्रकार मैंने तुम्हारे समक्ष संध्याके पवित्र चरित्रका वर्णन किया , जो समस्त कामनाओंके फलोंको देनेवाला , परम पावन और दिव्य है । जो स्त्री या शुभ व्रतका आचरण करनेवाला पुरुष इस प्रसंगको सुनता है , वह सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है । इसमें अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है । प्रजापति ब्रह्माजीकी यह बात सुनकर नारदजीका मन प्रसन्न हो गया और वे इस प्रकार बोले ।
नारदजीने कहा - ब्रह्मन् ! आपने अरुन्धतीकी तथा पूर्वजन्ममें उसकी स्वरूपभूता संध्याकी बड़ी उत्तम दिव्य कथा सुनायी है , जो शिवभक्तिकी वृद्धि करनेवाली है । धर्मज्ञ ! अब आप भगवान् शिवके उस परम पवित्र चरित्रका वर्णन कीजिये , जो दूसरोंके पापोंका विनाश करनेवाला , उत्तम एवं मंगलदायक है । जब कामदेव रतिसे विवाह करके हर्षपूर्वक चला गया , दक्ष आदि अन्य मुनि भी जब अपने - अपने स्थानको पधारे और जब संध्या तपस्या करनेके लिये चली गयी , उसके बाद वहाँ क्या हुआ ?
ब्रह्माजीने कहा - विप्रवर नारद ! तुम धन्य हो , भगवान् शिवके सेवक हो ; अत शिवकी लीलासे युक्त जो उनका शुभ चरित्र है , उसे भक्तिपूर्वक सुनो । तात पूर्वकालमें मैं एक बार जब मोहमें पड़ गया और भगवान् शंकरने मेरा उपहास किया तब मुझे बड़ा क्षोभ हुआ था । वस्तुतः शिवकी मायाने मुझे मोह लिया था , इसलिये मैं भगवान् शिवके प्रति ईर्ष्या करने लगा । किस प्रकार , सो बताता हूँ ; सुनो । मैं उस स्थानपर गया , जहाँ दक्षराज मुनि उपस्थित थे । वहीं रतिके साथ कामदेव भी था ।
नारद ! उस समय मैंने बड़ी प्रसन्नताके साथ दक्ष तथा दूसरे पुत्रोंको सम्बोधित करके वार्तालाप आरम्भ किया । उस वार्तालापके समय मैं शिवकी मायासे पूर्णतया मोहित था ; अतः मैंने कहा - ' पुत्रो ! तुम्हें ऐसा प्रयत्न करना चाहिये , जिससे महादेवजी किसी कमनीय कान्तिवाली स्त्रीका पाणिग्रहण करें । ' इसके बाद मैंने भगवान् शिवको मोहित करनेका भार रतिसहित कामदेवको सौंपा । कामदेवने मेरी आज्ञा मानकर कहा ' प्रभो ! सुन्दरी स्त्री ही मेरा अस्त्र है , अतः शिवजीको मोहित करनेके लिये किसी नारीकी सृष्टि कीजिये । ' यह सुनकर मैं चिन्तामें पड़ गया और लंबी साँस खींचने लगा । मेरे उस निःश्वाससे राशि - राशि पुष्पोंसे विभूषित वसन्तका प्रादुर्भाव हुआ । वसन्त और मलयानिल - ये दोनों मदनके सहायक हुए । इनके साथ जाकर कामदेवने वामदेवको मोहनेकी बारंबार चेष्टा की , परंतु उसे सफलता न मिली ।
जब वह निराश होकर लौट आया , तब उसकी बात सुनकर मुझे बड़ा दुःख हुआ । उस समय मेरे मुखसे जो नि : श्वास वायु चली , उससे मारगणोंकी उत्पत्ति हुई । उन्हें मदनकी सहायताके लिये आदेश देकर मैंने पुनः उन सबको शिवजीके पास भेजा , परंतु महान् प्रयत्न करनेपर भी वे भगवान् शिवको मोहमें न डाल सके । काम सपरिवार लौट आया और मुझे प्रणाम करके अपने स्थानको चला गया । सोचने लगा कि निर्विकार तथा मनको वशमें रखनेवाले योगपरायण भगवान् शंकर किसी स्त्रीको अपनी सहधर्मिणी बनाना कैसे स्वीकार करेंगे । यही सोचते - सोचते मैंने भक्तिभावसे उन भगवान् श्रीहरिका स्मरण किया , जो साक्षात् शिवस्वरूप तथा मेरे शरीरके जन्मदाता हैं । मैंने दीन वचनोंसे युक्त शुभ स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति की । उस स्तुतिको सुनकर भगवान् शीघ्र ही मेरे सामने प्रकट हो गये । उनके चार भुजाएँ शोभा पाती थीं । नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान सुन्दर थे ।
उन्होंने हाथोंमें शंख , चक्र गदा और पद्म ले रखे थे । उनके श्याम शरीरपर पीताम्बरकी बड़ी शोभा हो रही थी । वे भगवान् श्रीहरि भक्त - प्रिय हैं- अपने भक्त उन्हें बहुत प्यारे हैं । सबके उत्तम शरणदाता उन श्रीहरिको उस रूपमें देखकर मेरे नेत्रोंसे प्रेमाश्रुओंकी धारा बह चली और मैं गद्गद कण्ठसे बारंबार उनकी स्तुति करने लगा । मेरे उस स्तोत्रको सुनकर अपने भक्तोंके दुःख दूर करनेवाले भगवान् विष्णु बहुत प्रसन्न हुए और शरणमें आये हुए मुझ ब्रह्मासे बोले - ' महाप्राज्ञ विधातः ! लोकस्रष्टा ब्रह्मन् ! तुम धन्य हो । बताओ , तुमने किसलिये आज मेरा स्मरण किया है और किस निमित्तसे यह स्तुति की जा रही है ? तुमपर कौन - सा महान् दुःख आ पड़ा है ? उसे मेरे सामने इस समय कहो । मैं वह सारा दुःख मिटा दूंगा । इस विषयमें कोई संदेह या अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये ।
तब ब्रह्माजीने सारा प्रसंग सुनाकर कहा - ' केशव ! यदि भगवान् शिव किसी तरह पत्नीको ग्रहण कर लें तो मैं सुखी हो - जाऊँगा , मेरे अन्त : करणका सारा दुःख दूर हो जायगा । इसीके लिये मैं आपकी शरणमें आया हूँ । ' मेरी यह बात सुनकर भगवान् मधुसूदन हँस पड़े और मुझ लोकस्रष्टा ब्रह्माका हर्ष बढ़ाते हुए मुझसे शीघ्र ही यों बोले " विधातः ! तुम मेरा वचन सुनो । यह तुम्हारे भ्रमका निवारण करनेवाला है । मेरा वचन ही वेद - शास्त्र आदिका वास्तविक सिद्धान्त है ।
शिव ही सबके कर्ता - भर्ता ( पालक ) और हर्ता ( संहारक ) हैं । वे ही परात्पर हैं परब्रह्म , परेश , निर्गुण , नित्य , अनिर्देश्य , निर्विकार , अद्वितीय , अच्युत , अनन्त , सबका अन्त करनेवाले , स्वामी और सर्वव्यापी परमात्मा एवं परमेश्वर हैं । सृष्टि , पालन और संहारके कर्ता , तीनों गुणोंको आश्रय देनेवाले , व्यापक , ब्रह्मा , विष्णु और महेश - नामसे प्रसिद्ध , रजोगुण , सत्त्वगुण तथा तमोगुणसे परे , मायासे ही भेदयुक्त प्रतीत होनेवाले , निरीह , मायारहित , मायाके स्वामी या प्रेरक , चतुर , सगुण , स्वतन्त्र , आत्मानन्दस्वरूप , निर्विकल्प , आत्माराम , निर्द्वन्द्व , भक्तपरवश , सुन्दर विग्रहसे सुशोभित योगी , नित्य योगपरायण , योग - मार्गदर्शक , गर्वहारी , लोकेश्वर और सदा दीनवत्सल हैं । तुम उन्हींकी शरणमें जाओ।
सर्वात्मना शम्भुका भजन करो । इससे संतुष्ट होकर वे तुम्हारा कल्याण करेंगे । ब्रह्मन् ! यदि तुम्हारे मनमें यह विचार हो कि शंकर पत्नीका पाणिग्रहण करें तो शिवाको प्रसन्न करनेके उद्देश्यसे शिवका स्मरण करते हुए उत्तम तपस्या करो । अपने उस मनोरथको हृदयमें रखते हुए देवी शिवाका ध्यान करो । वे देवेश्वरी यदि प्रसन्न हो जायँ तो सारा कार्य सिद्ध कर देंगी । यदि शिवा सगुणरूपसे अवतार ग्रहण करके लोकमें किसीकी पुत्री हो मानवशरीर ग्रहण करें तो वे निश्चय ही महादेवजीकी पत्नी हो सकती हैं । ब्रह्मन् ! तुम दक्षको आज्ञा दो , वे भगवान् शिवके लिये पत्नीका उत्पादन करनेके निमित्त स्वत : भक्तिभावसे प्रयत्नपूर्वक तपस्या करें । तात ! शिवा और शिव दोनोंको भक्तके अधीन जानना चाहिये । वे निर्गुण परब्रह्मस्वरूप होते हुए भी स्वेच्छासे सगुण हो जाते हैं । ' विधे ! भगवान् शिवकी इच्छासे प्रकट हुए हम दोनोंने जब उनसे प्रार्थना की थी , तब पूर्वकालमें भगवान् शंकरने जो बात कही थी , उसे याद करो ।
ब्रह्मन् ! अपनी शक्तिसे सुन्दर लीला - विहार करनेवाले निर्गुण शिवने स्वेच्छासे सगुण होकर मुझको और तुमको प्रकट करनेके पश्चात् तुम्हें तो सृष्टि - कार्य करनेका आदेश दिया और उमासहित उन अविनाशी सृष्टिकर्ता प्रभुने मुझे उस सृष्टिके पालनका कार्य सौंपा फिर नाना लीला - विशारद उन दयालु स्वामीने हँसकर आकाशकी ओर देखते हुए बड़े प्रेमसे कहा - विष्णो ! मेरा उत्कृष्ट रूप इन विधाताके अंगसे इस लोकमें प्रकट होगा , जिसका नाम रुद्र होगा ।
रुद्रका रूप ऐसा पूजा करनी ही होगा , जैसा मेरा है । वह मेरा पूर्णरूप होगा , तुम दोनोंको सदा उसकी चाहिये । वह तुम दोनोंके सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि करनेवाला होगा । वही जगत्का प्रलय करनेवाला होगा । वह समस्त गुणोंका द्रष्टा , निर्विशेष एवं उत्तम योगका पालक होगा । यद्यपि तीनों देवता मेरे ही रूप हैं , तथापि विशेषतः रुद्र मेरा पूर्णरूप होगा । पुत्रो ! देवी उमाके भी तीन रूप होंगे । एक रूपका नाम लक्ष्मी होगा , जो इन श्रीहरिकी पत्नी होंगी । दूसरा रूप ब्रह्मपत्नी सरस्वती । तीसरा रूप सतीके नामसे प्रसिद्ध होगा । सती उमाका पूर्णरूप होंगी । वे ही भावी रुद्रकी पत्नी होंगी । ' " ऐसा कहकर भगवान् महेश्वर हमपर कृपा करनेके पश्चात् वहाँसे अन्तर्धान हो गये और हम दोनों सुखपूर्वक अपने - अपने कार्यमें लग गये । ब्रह्मन् ! समय पाकर मैं और तुम दोनों सपत्नीक हो गये और साक्षात् भगवान् शंकर रुद्रनामसे अवतीर्ण हुए । वे इस समय कैलास पर्वतपर निवास करते हैं । प्रजेश्वर ! अब शिवा भी सती नामसे अवतीर्ण होनेवाली हैं । अतः तुम्हें उनके उत्पादनके लिये ही यत्न करना चाहिये । " ऐसा कहकर मुझपर बड़ी भारी दया करके भगवान् विष्णु अन्तर्धान हो गये और मुझे उनकी बातें सुनकर बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ । ( अध्याय ७-१० )





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