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योग और अष्टचक्र का सम्बन्ध

योग और अष्टचक्र का सम्बन्ध

अष्ट चक्रों को जानने व उनके अन्दर स्थित शक्तियों का जागरण व ऊर्ध्वारोहण के लिए योग को जानना बहुत आवश्यक है । योग शब्द संस्कृत के ' युजिर् योगे ' धातु से बना है । इसका अर्थ है समाधि , चित्तवृत्तियों का निरुद्ध हो जाना तथा आत्मा का अपने शान्त स्वरूप में मग्न हो जाना । समाधि में योगी को आत्मतत्त्व व परमात्मा की गहन एवं साक्षात् अनुभूति होती है । समाधि में स्वरूपावस्थिति से प्राप्त आत्यन्तिक सुख इन्द्रियातीत एवं अलौकिक होता है । यह योग की उच्च स्थिति है । जैसे भवन पर चढ़ने के लिए सीढ़ी का सहारा लिया जाता है , वैसे ही यहां तक पहुंचने के लिए- यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा एवं ध्यान रूपी सोपान ( सीढ़ी ) का सहारा लिया जाता है । ये योग के अंग हैं । जब तक मन राग - द्वेष एवं विषयासक्ति से विमुख होकर निर्मल व शान्त नहीं हो जाता , शरीर रोग व पीड़ा से मुक्त नहीं होता , तब तक योगमार्ग में गति नहीं होती और समाधि तक पहुंचना सम्भव नहीं हो पाता है । 

अत एव शरीर को निरोग तथा मन को निर्मल , प्रसन्न व शान्त बनाने के लिए यम - नियम , आसन - प्राणायाम आदि की साधना आवश्यक है । इस प्रकार योग के अंगों का अभ्यास करने से ही व्यक्ति अपनी चित्तवृत्तियों का निरोध व मन पर संयम प्राप्त कर सकता है । इस तरह मन की चंचलता को दूर करने के लिए अभ्यास व वैराग्य को आवश्यक माना है । वैराग्य के लिए विषयासक्ति में दोषदर्शन आवश्यक है । अभ्यास श्रद्धापूर्वक निरन्तर करने पर ही होता है । योग साधना से व्यक्ति का मन जितना शान्त व प्रसन्न होता जाता है , उतना ही हमारे अन्दर दिव्य ज्ञानालांक भी प्रकट होने लगता है । इससे व्यक्ति नई ऊर्जा व आत्म - शक्ति से पूर्ण हो जाता है । इस ऊर्जा के रूपान्तरण से योगी में नई चेतना या शक्ति पैदा होती है । योग की साधना से यह दिव्य शक्ति , संकल्प व ध्यान के द्वारा निम्न चेतना के केन्द्रों ' चक्रों ' से ऊध्वं चेतना के ' केन्द्रों ' की ओर बढ़ने लगती है या ध्यान स्थिर होने लगता है , तब व्यक्ति मनःशक्ति , संकल्प - शक्ति व आत्मशक्ति से युक्त हो जाता है । जब एक बार अन्दर सुषुप्त शक्ति ( प्राणशक्ति ) जागृत हो जाती है , तब वे शक्तियाँ मुख्य रूप में प्राण शक्ति के रूप में पिंगला नाड़ी , मनस् शक्ति के रूप में इड़ानाड़ी और आत्मशक्ति के रूप में सुषुम्ना नाड़ी के रूप में चेतना को ऊर्ध्व गमन कराने लगती हैं । जब यह शक्ति जागृत हो जाती है , तो निरन्तर चेतन रहती है । इसलिए जब भी ध्यान में बैठते हैं , तभी वह पुनः जागृत हो जाती है । उस समय साधक वह सब कुछ महसूस करता है , जो पहले कभी कल्पना में भी नहीं की होता है । इस तरह जब साधक कुछ समय तक यौगिक जीवन शैली अपनाते हैं या भक्ति , साधना , प्रार्थना , तप , सेवा आदि द्वारा अपनी चेतनाशक्ति को उद्बुद्ध करते हैं , तब विविध तरह की अकल्पनीय अनुभूतियाँ व सिद्धियां स्वत : ही होनी प्रारम्भ हो जाती हैं और लगता है कि कुछ हो रहा है । इस से शरीर व मन में एक प्रकार का रूपान्तरण भी होता है , जिससे जीवन में एक आमूलचूल या समग्र परिवर्तन होने लगता है । महर्षि पतंजलि प्रणीत अष्टांग योग व अष्टचक्रों का सम्बन्ध 

महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अंगों का वर्णन किया है , जिन्हें- यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान व समाधि के रूप में जाना जाता है

1. यम- पांच हैं- अहिंसा , सत्य अस्तेय , ब्रह्मचर्य , अपरिग्रह । इनका सम्बन्ध व्यक्ति की आन्तरिक भावनाओं से है । सत्य , अहिंसा आदि का पालन न करने से व्यक्ति अपने साथ समाज व देश की भी हानि करता है । शरीर में स्थित नकारात्मक व विकारी भावों से वह ऐसा करता है । इसका सम्बन्ध मूलाधार चक्र से है । जब मूलाधार की शक्ति जागृत होती है , तब झूठ , हिंसा , अति कामवासना आदि विकार समाप्त होने लगते हैं । 

2. नियम ये भी पांच हैं- शौच , सन्तोष , तप , स्वाध्याय , ईश्वरप्राणिधान । इनका सम्बन्ध व्यक्ति के आचरण से है । इन्हें धारण न करने से पहले व्यक्तिगत हानि अधिक होती है । उसके परिणामस्वरूप समाज को भी हानि होती है । इसका सम्बन्ध स्वाधिष्ठान चक्र से है । इस चक्र के जागृत होने से या इस चक्र पर संयम करने से नियमों के पालन में सहयोग प्राप्त होता है तथा नियम - पालन से स्वाधिष्ठान चक्र जागृत हो जाता है । 

3. आसन- आसनों से स्थूल देह निरोग व सौष्ठव सम्पन्न होता है । आसनों का सम्बन्ध मणिपूर या ' नाभि चक्र ' से है । मणिपूर चक्र की शक्ति जागृत होने से पाचन प्रक्रिया व शरीरगत विकार ठीक होते हैं । 

4. प्राणायाम- इसका सम्बन्ध अनाहत चक्र से है , जो फेफड़े व हृदय क्षेत्र में स्थित है । उसके जागृत होने से प्राणशक्ति प्रबल होती है तथा हृदय व श्वसन तन्त्र स्वस्थ रहते हैं । 

5. प्रत्याहार- प्रत्याहार का सम्बन्ध विशुद्धि चक्र से है । इस चक्र के जागृत होने से इन्द्रिय - विषयों के प्रति आसक्ति हट जाती है एवं व्यक्ति जितेन्द्रिय हो जाता है । 

6. धारणा- धारणा का सम्बन्ध ' आज्ञा चक्र ' से है । प्रत्याहार द्वारा जब इन्द्रियाँ एवं मन अन्तर्मुखी होने लगें , तब उनको एक स्थान पर स्थिर करने का नाम ही धारणा है । आज्ञाचक्र के जागृत होने से धारण दृढ़ होती है । 

7. ध्यान- ध्यान का सम्बन्ध ' मनश्चक्र ' ( ललना व बिन्दु चक्र ) से है । धारणा द्वारा संचित चेतना के सम्पूर्ण प्रवाह व शक्ति को अपने अन्दर स्थित कर उसको स्थिर करना ही मनश्चक्र की जागृति है । 8. समाधि- सभी विकारों व विचारों से मुक्त केवल ध्येय मात्र ( ईश्वर ) के स्वरूप व स्वभाव को प्रकाशित करने वाली ध्याता की स्वरूपशून्य - सी स्थिति ही ' सहस्रार चक्र ' की जागृति या समाधि व परमानन्द की स्थिति है ।

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