
हरेला त्यौहार, कर्क संक्रांति 17 जुलाई 2023
देवभूमि उत्तराखंड आदिकाल से ही अपनी परंपराओं और रिवाजों के द्वारा प्रकृति प्रेम और प्रकृति के प्रति अपनी जिम्मेदारी और सद्भावना को दर्शाता चला आ रहा है। इसलिए उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है। प्रकृति को समर्पित उत्तराखंड का लोक पर्व हरेला त्यौहार प्रत्येक वर्ष कर्क संक्रांति श्रावण मास के पहले दिन हर्षोल्लास के साथ यह त्यौहार मनाया जाता है। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार इस वर्ष 17 जुलाई 2023 को हरेला त्यौहार मनाया जाएगा। और हरेला त्यौहार के ठीक 10 दिन पहले यानी कि 8 जुलाई 2023 को हरेला बोया जाता है। उत्तराखंड सरकार ने हरेला त्यौहार को राज्य पर्व मानते हुए 17 जुलाई 2023 को सार्वजनिक अवकाश घोषित किया है।
देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में हरेला पर्व विशेष रूप से मनाया जाने वाला यह त्यौहार प्रकृति प्रेम के साथ कृषि विज्ञान को भी समर्पित है। हरेला 10 दिनों की प्रक्रिया में मिश्रित अनाज को देवस्थान में उगाते हैं फिर कर्क संक्रांति के दिन हरेला काटकर यह त्यौहार हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। जिस प्रकार मकर संक्रांति से सूर्य भगवान उत्तरायण हो जाते हैं। और दिन बढ़ने लगते हैं ठीक वैसे ही कर्क संक्रांति से सूर्य भगवान दक्षिणायन हो जाते हैं। और कहा जाता है कि इस दिन से दिन रत्ती भर घटने लगता है और रातें बड़ी होने लगती हैं।
कैसे मनाया जाता है हरेला और कैसे बोया जाता है।
हरेला बोने के लिए 10,-12 दिन पहले शुभ मुहूर्त देखकर घर के आस – पास से शुद्ध
मिट्टी निकाल कर लाई जाती हैं और उसे छान लेते हैं छान कर 7 प्रकार का मिश्रित अनाज बोया जाता है हरेले
में गेहूँ, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, मक्का, यथा परम्परा अनुसार मिश्रित
करके बो देते है इसको हरेला बोना कहते हैं। मिट्टी में सात प्रकार के मिश्रित अनाजों को भोले के बाद
इसे मंदिर के कोने में सूर्य की किरणों से बचा कर रखा जाता है इसमें दो या तीन दिन
बाद अंकुरण शुरू हो जाता है सामान्यतः हरेले की देख-रेख की जिम्मेदारी घर की मात्र
शक्तियां करती हैं या कुल पुरोहित को सौंप दिया जाता है सामान्यतः हरियाली बोलने
का और देखरेख का निर्धारण उस परिवार के लोगों के आधार पर तय होता है।
कई स्थानों पर लोक परंपरा अनुसार हरेला की गुड़ाई निराई की जाती है बांस की
तीलियों से हरेला की निराई गुड़ाई की जाती
है।
हरेला 4 – 5 दिन बाद जब अंकुर कर बड़ा हो जाता है तब रक्षा धागा से बांध दिया जाता है और गंध अक्षत
चढ़ाकर हरेला का पूजन किया जाता है इसके अलावा कुमाऊं के कई स्थानों पर चिकनी
मिट्टी में रुई लगाकर शिव पार्वती भगवान के प्रतिरूप बनाकर उन्हें हरेला के बीच
में रखकर उनके हाथों में दाड़िम या किलमोड़ा की लकड़ी गुड़ाई के निमित्त पकड़ा देते है। इसके अलावा गणेश
और कार्तिकेय जी के भी प्रतिरूप
बनाए जाते हैं।
इनकी विधिवत पूजा भी की जाती है। और मौसमी फलों को भी चड़ाया जाता है। इस दिन छउवा या चीले बनाये जाते है। वर्तमान में यह
परम्परा कम हो गयी है। हरेले के दिन पंडित जी देवस्थानम में हरेले की
प्राणप्रतिष्ठा करते हैं। पहाड़ों में किसी भी शुभ कार्य या त्योहार पर उड़द की
पकोड़ी (जिसे स्थानीय भाषा मे मास का बड़ा कहते हैं)
बनानां जरूरी होता है। पुरियों के साथ बड़ा जरूर बनता है। और प्रकृति की रक्षा के
प्रण के साथ पौधे लगाते हैं। कटे हुए हरेले में दो पुड़ी या कुछ भाग छत के शीर्षतम
बिंदु जिसे धुरी कहते है, वहा रख दिया जाता है। इसके बाद कुल देवताओं और गाव के सभी मंदिरों में चड़ाया जाता है। और फिर मे घर मे छोटो को बड़े लोग हरेले के आशीष गीत के
साथ हरेला लगाते हैं।
अल्मोड़ा के कुछ क्षेत्रों में नवविवाहित जोड़े
लड़की के मायके फल सब्जियाँ लेकर जाते हैं, जिसे ओग देने की परंपरा कहते हैं। नवविवाहित कन्या का
प्रथम हरेला मायके में मनाना आवश्यक माना जाता है। जो कन्या किसी कारणवश अपने
मायके नही जा सकती उसके लिए ससुराल में ही हरेला और दक्षिणा भेज दी जाती है। और गांवों में बैइसि, बाइस दिन की साधना जागर इसी दिन से शुरू होती है।
गढ़वाल में हरेला पर्व
हरेला
उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में प्रमुखता से मनाया जाता है। इसके साथ - साथ उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल
में भी यह
त्यौहार एक कृषि पर्व के रूप में मनाया जाता है। गढवाली परम्परा में
कही कही अपने कुल देवता के मंदिर के सामने मिट्टी डालकर, केवल जौ उगाई जाती है। इसे बोने का कार्य महिलाएं नहीं केवल पुरुष करते
हैं। वो भी वही पुरुष करते हैं, जिनका यज्ञोपवीत हो चुका
होता है। चमोली में यह त्यौहार हरियाली देवी की पूजा के निमित्त मनाया जाता है।
यहाँ हरियाली देवी के प्रांगण में जौ उगाई जाती है।और पूजन के बाद स्वयं धारण करते
हैं।
हरेला का गीत आशीर्वाद
हरेले
के दिन हरेला काटने
के बाद,
घर के बुजुर्ग छोटो को आसन पे बिठा के, दो
हाथों से हरेले की पत्तियां घुटने,कंधे और फिर सिर पर
रखते हैं। ये आशीष गीत गाते हैं।
जी
रये,
जागी राये।
यो
दिन बार भेटने राये
स्याव
जस बुद्धि है जो
बल्द
जस तराण हैं जो
दुब
जस पनपने राये
कफुवे
जस धात हैं जो
पाणी
वाई पतौउ हैं जे
लव्हैट
जस चमोड़ हैं जे
ये
दिन यो बार भेंटने राये
जी
रये जागी राये
हरेले की शुभकामनाएं देकर बुजुर्ग बच्चो को आशीर्वाद देते हैं। हरेला उत्तराखण्डी संस्कृति का प्रमुख लोकपर्व है। यह उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोक पर्वों में से एक है। हरेला त्यौहार प्रकृति से प्रेम एवं नव फसल की खुशियों व आपसी प्रेम का प्रतीक त्यौहार है। इसी दिन से भगवान भोले बाबा का पावन पवित्र पर्व श्रावण माह प्रारंभ हो जाता है।
आचार्य दिनेश पाण्डेय (मुम्बई & उत्तराखण्ड)
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