
श्रावण माह में और भी अधिक बढ़ जाता है प्रदोष व्रत का महत्व, असंभव कार्य भी हो जाता है संभव, शिवजी करते है प्रत्येक मनोकामना पूर्ण
व्रत की विधि
यदि किसी मास में त्रयोदशी सोमवार के दिन आये तो उसे सौम्य अथवा सोम प्रदोष
कहते हैं। सोम प्रदोष का महात्म्य अन्य दिनों में आने वाली त्रयोदशी से अधिक होता
है क्योंकि सोमवार शिव पूजा का विशेष दिन है। इसकी महत्ता इसलिए भी अधिक है
क्योंकि अधिकांश लोग अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिये यह व्रत नियमित रूप से करते
हैं जब तक इच्छित फल की प्राप्ति न हो जाए। प्रदोष व्रत की विधि और उद्यापन कर्म
उसी प्रकार करने चाहियें जैसे अन्य प्रदोष व्रतों में करते हैं।
सौम्य प्रदोष व्रत कथा
प्राचीन समय में किसी नगर में एक वैश्य रहता था। वह वैश्य बहुत ही धनी था,
उसे किसी बात का कष्ट न था। परन्तु उसके पास
विशाल वैभव होते हुए भी कोई सन्तान न थी जिसके कारण वह वैश्य हमेशा दुःखी रहता था।
वह वैश्य भगवान शिव का अनन्य उपासक था। प्रत्येक सोमवार को वह शिवजी की पूजा तथा
व्रत किया करता था। सोमवार के दिन सांयकाल वह शिव मंदिर में दीपक जलाता तथा उन्हें
अनेकों प्रकार के व्यंजन अर्पित किया करता था। इसके बाद पत्नी सहित भगवान का
प्रसाद ग्रहण करता था। उस वैश्य के भक्ति भाव को देखकर पार्वती जी दयार्द्र हो गई
और शिवजी से बोलीं-
हे शिवजी ! यह वैश्य प्रति सोमवार को आपका पूजन कितनी श्रद्धा से करता है, आप इसकी सन्तानहीनता दूर क्यों नहीं करते? पार्वती जी की बात सुनकर शिवजी ने कहा-
हे देवी ! इस
वैश्य को सन्तान न होना इसके पूर्व जन्म का फल है और वह अपने कर्मों का फल भुगत
रहा है।
'पार्वती’ जी ने कहा- हे भगवन ! यदि आप अपने भक्तों का कष्ट दूर नहीं करेंगे तो भक्तजन आपकी पूजा और आराधना क्योंकर करेंगे। इसलिए आप उसे अवश्य ही पुत्रवान बनाइए। 'पार्वती जी के उत्तर में शिवजी ने कहा-
हे देवी ! मैं
तुम्हारे आग्रह से उसे पुत्र प्राप्ति का वर देता हूँ, परन्तु इसके भाग्य में पुत्र सुख न होने से वह पुत्र केवल
बारह वर्ष तक ही जीवित रह सकेगा। कुछ काल के अनन्तर भगवान शिव की कृपा से वैश्य
पत्नी गर्भवती हुई और दसवें मास में उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पुत्र
उत्पन्न होने से वैश्य के घर में अत्यन्त आनन्द मनाया गया, परन्तु फिर भी वह वैश्य निश्चिन्त न हो सका। क्योंकि वह
जानता था कि यह पुत्र केवल बारह वर्ष तक ही मेरे साथ रहेगा इस प्रकार आनन्द मंगल
में ग्यारह वर्ष का समय बीत गया।
एक दिन उसकी माता ने पति से पुत्र के विवाह के लिए आग्रह किया। वैश्य ने अपनी
पत्नी से कहा- अभी विवाह की क्या चिन्ता है, अभी तो मैं इसे काशी में विद्याध्ययन के लिए भेजना चाहता हूँ।
'पत्नी से ऐसा कहकर उस
वैश्य ने लड़के के मामा को बुलाया और उसे अत्यन्त धन देकर कहा- 'तुम अपने इस भांजे को पढ़ाने के लिये काशी ले
जाओ। परन्तु एक बात याद रखना कि मार्ग में ब्राह्मणों को भोजन दक्षिणा देते तथा
यज्ञ करते हुए जाना। इस प्रकार घर से वे दोनों विदा होकर रास्ते में ब्राह्मणों को भोजन दक्षिणा
देते तथा यज्ञ करते हुए एक नगर में पहुँच गए। संयोग से उस नगर के राजा की कन्या का
विवाह उसी दिन था। कन्या अत्यन्त सुन्दरी तथा सुलक्षणा थी। परन्तु जिस राजकुमार से
विवाह होने वाला था वह एक आंख का काना था। वर के पिता को इस बात की बहुत चिन्ता था। जब उसने वैश्य के उस सुन्दर
पुत्र को देखा तो उसने उसके मामा से कहा- यदि आप अपने भाँजे को कुछ समय के लिए
मुझे दे देवें तो आपकी बड़ी कृपा होगी। विवाह के पश्चात मैं इसे आपके पास वापस भेज
दूंगा और आपको बहुत सा धन दूंगा। वर के पिता के इस प्रस्ताव से वह सहमत हो गया और
अपने भाँजे को नकली वर बनाकर विवाह मण्डप में भेज दिया। विवाह कार्य विधिवत
सम्पन्न हुआ। परन्तु जब वैश्यपुत्र सिन्दूर दान करके वापस लौटने लगा तो उसने
राजकुमारी की साड़ी के एक छोर पर लिख दिया कि -
हे प्रिये ! तुम्हारा विवाह मुझ वैश्य पुत्र के साथ हुआ है। अब मैं पढ़ने के
लिए काशी जा रहा हूँ। अब तुम्हें एक नकली वर के साथ विदा होना पड़ेगा जो कि एक आंख से काना है और तुम्हारा पति नहीं। इतना लिखकर
वैश्यपुत्र चला गया। विदाई के समय जब राजकुमारी ने अपनी साड़ी पर वैश्यपुत्र
द्वारा लिखित बात पढ़ी तो उसने राजकुमार के साथ जाना अस्वीकार कर दिया और उत्तर
में कहा- ' यह मेरा पति नहीं है।
मेरा पति वैश्यपुत्र है जो इस समय पढ़ने के लिए काशी गया है। ' राजकुमारी की बात सुनकर उसके माता - पिता बहुत
ही सोच में पड़ गए और वर के पिता द्वारा किये गए छल से दुःखी हुए और कन्या को विदा
किया। बारात खाली हाथ वापस लौट गई। उधर वे दोनों वैश्य काशी पहुँच गए। वहाँ जाकर
वैश्यपुत्र विद्याध्ययन तथा उसका मामा यज्ञ सम्पादन में लगा। इस प्रकार कुछ ही
दिनों बाद उस लड़के के बारह वर्ष पूरे हो गए। उस दिन यज्ञ हो रहा था। लड़के ने
अपने मामा से कहा- ' आज मेरी तबीयत
ठीक नहीं जान पड़ रही है इसलिए मैं सोने के लिये जा रहा हूँ। थोड़ी देर बाद आकर जब
मामा ने देखा तो भाँजे को मृत अवस्था में पाया जिससे वह बहुत दुःखी हुआ। परन्तु
उधर यज्ञ कार्य चल रहा था इसलिए यज्ञ भंग
होने के भय से मौन ही रहा। जब यज्ञ की पूर्णाहुती हो गई और सभी ब्राह्मण वहाँ से
चले गये तो वह जोरों से विलाप करने लगा। उसी समय दैवयोग से पार्वती के साथ शिवजी
उधर आ निकले। उस विलाप को सुनकर पार्वती जी का मन दयार्द्र हो उठा और वह शिवजी से
बोलीं-
हे भगवन ! इतना करुण क्रन्दन कौन कर रहा है ? आप वहाँ चलकर देखिये कि उसके रोने का क्या कारण है ? '
पार्वती जी के आग्रह से शिवजी उस स्थान पर गए। वहाँ पहुँच कर पार्वती जी ने उस बालक को पहचान लिया और कहा- '
हे भगवन आपके वरदान से उत्पन्न बालक मृत हो चुका है इसका क्या कारण है ?
" शिवजी बोले- हे देवी ! यह बालक अपनी पूरी आयु समाप्त कर चुका
और अब मृत्यु को प्रात हो गया। इसमें मैं क्या कर सकता हूँ।
'पार्वती जी ने कहा- ' हे शिवजी ! आपने जिस प्रकार कृपा करके इसे बारह वर्ष की आयु दी थी उसी प्रकार अनुग्रह करके इसे जीवन की पूरी आयु प्रदान कीजिये नहीं तो वह वैश्य इस वियोग में अपने प्राण छोड़ देगा। 'पार्वती जी के आग्रह से शिव ने उस बालक को जीवन दान दिया और स्वयं पार्वती जी सहित शिवलोक को चले गए। इधर शिवजी से वरदान पाकर वह बालक जी उठा और कुछ दिनों के बाद अपने मामा के साथ अपने नगर को प्रस्थान किया। वहाँ से चलकर पुनः उसी नगर में आया जहाँ उसका विवाह राजकुमारी के साथ हुआ था। वहाँ उसने यज्ञ कराकर ब्राह्मणों को भोजन तथा दक्षिणा दी। ब्राह्मणों द्वारा राजा को यह सूचना मिली कि काशी से एक वैश्य पुत्र आया है जो ब्राह्मणों को भोजन और दक्षिणा दे रहा। राजा उसे देखने के लिए गया। वहाँ जब राजा ने प्रत्यक्ष रूप से अपने दामाद को देखा तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। वह आदरपूर्वक अपने महल में ले आया। कुछ दिनों तक आदर भाव करने बाद अपनी पुत्री को अत्यन्त धन देकर विदा किया। वह वैश्य पुत्र अपनी पत्नी और मामा के साथ अपने नगर को चला जब सब लोग घर के समीप पहुँचे तो उसके मामा ने कहा- ' तुम लोग यहीं रुको। मैं घर जाकर आने की खबर देता हूँ। इधर इस बालक का पिता अपनी पत्नी सहित छत पर बैठा था और अपने मन में संकल्प कर रखा था कि यदि मेरा पुत्र काशी से लौटकर नहीं आवेगा तो हम दोनों यहीं से नीचे कूदकर अपने प्राण गंवा देंगे। 'जब लड़के के मामा ने जाक कहा कि तुम्हारा पुत्र विद्याध्ययन करके अपनी पत्नी को साथ लेकर कुशलतापूर्वक वापस आ गया है तो माता के आनन्द की सीमा न रही। उन लोगों ने अपने पुत्र और पुत्रवधू का स्वागत किया और नियमपूर्वक सोमवार को व्रत रखकर शिवजी की पूजा करने लगे। जो व्यक्ति सोमवार को व्रत रखकर श्रद्धापूर्वक शिव पूजन करते हैं इस कथा को पढ़ते और सुनते हैं वे निश्चय ही सभी कष्टों से मुक्त होकर मनोवांछित फल को प्राप्त करते हैं ।
सौम्य प्रदोष व्रत दूसरी कथा
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