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विजय दशमी के दिन घोषित हुई श्री बदरीनाथ धाम के कपाट बंद होने की तिथि

Shri-Badrinath-Dham

विजय दशमी के दिन घोषित हुई श्री बदरीनाथ धाम के कपाट बंद होने की तिथि

विश्व प्रसिद्ध श्री बदरीनाथ धाम के कपाट बंद होने की तिथि विजयादशमी के अवसर पर बदरीनाथ के रावल (मुख्य पुजारी) ईश्वरी प्रसाद नंबूदरी और धर्माधिकारी भुवन चंद्र उनियाल ने विधि-विधान से पंचांग गणना कर के  धाम के कपाट बंद होने तिथि की घोषणा की।

इस दौरान आगामी वर्ष की तीर्थयात्रा के संचालन के लिए बदरीनाथ में बारीदार (हक-हकूकधारी) को पगड़ी भी भेंट की गई। ये बारीदार आगामी वर्ष की बदरीनाथ धाम की तीर्थयात्रा में भंडार से लेकर भोग तक की जिम्मेदारी का निर्वहन करेंगे। 

इस तरह शुरू होगा कार्यक्रम

कपाट बंद होने की प्रक्रिया के तहत पंच पूजाओं में 15 नवंबर दिन मंगलवार को पहले दिन पूजा अर्चना की जाएगी, उसके बाद शाम को श्री गणेशजी के कपाट बंद हो जाएंगे। दूसरे दिन 16 नवंबर दिन बुधवार को आदि केदारेश्वर मंदिर के कपाट बंद होंगे, तीसरे दिन 17 नवंबर को खडग पुस्तक पूजन एवं वेद ऋचाओं का पाठ बंद हो जाएगा। चौथे दिन 18 नवंबर को मां लक्ष्मीजी को कढ़ाई भोग लगाया जाएगा तथा पांचवें दिन 19 नवंबर को रावलजी स्त्री भेष में मां लक्ष्मी को श्री बदरीविशाल के निकट स्थापित कर देते हैं। इससे पहले श्री उद्धवजी एवं कुबेर जी मंदिर प्रांगण में आ जाते है। इसके बाद श्री बदरीनाथ धाम के कपाट शीतकाल के लिए बंद कर दिए जाते हैं।

श्री बदरीनाथ धाम के कपाट 19 नवंबर को शाम 3 बजकर 35 मिनट पर बंद हो जाएगे। 

बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति के अध्यक्ष अजेंद्र अजय ने बताया कि इस वर्ष बदरीनाथ धाम के कपाट मीन लग्न में 19 नवंबर को अपराह्न 3:35 बजे शीतकाल के लिए बंद किए जाएंगे। 20 नवंबर को आदि गुरु शंकराचार्य की गद्दी, कुबेर और उद्धव की उत्सव डोली धाम से अपने शीतकालीन प्रवास स्थल पांडुकेश्वर के लिए प्रस्थान करेगी। 

केदारनाथ धाम के कपाट 27 अक्टूबर सुबह 8 बजकर 30 मिनट पर भैया दूज के अवसर पर बंद होंगे।। इसी दिन बाबा केदार की चल विग्रह उत्सव डोली ओंकारेश्वर मंदिर के लिए प्रस्थान करते हुए रात्रि प्रवास के लिए रामपुर पहुंचेगी। 28 को गुप्तकाशी स्थित विश्वनाथ मंदिर में रात्रि प्रवास करेगी। 29 को बाबा केदार ओंकारेश्वर मंदिर में विराजमान होंगे।

पौराणिक कथाएँ

पौराणिक लोक कथाओं के अनुसार, बद्रीनाथ तथा इसके आस-पास का पूरा क्षेत्र किसी समय शिव भूमि (केदारखण्ड) के रूप में अवस्थित था। जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हुई, तो यह बारह धाराओं में बँट गईतथा इस स्थान पर से होकर बहने वाली धारा अलकनन्दा के नाम से विख्यात हुई। मान्यतानुसार भगवान विष्णु जब अपने ध्यानयोग हेतु उचित स्थान खोज रहे थे, तब उन्हें अलकनन्दा के समीप यह स्थान बहुत भा गया। नीलकण्ठ पर्वत के समीप भगवान विष्णु ने बाल रूप में अवतार लिया, और क्रंदन करने लगे। उनका रूदन सुन कर माता पार्वती का हृदय द्रवित हो उठा, और उन्होंने बालक के समीप उपस्थित होकर उसे मनाने का प्रयास किया, और बालक ने उनसे ध्यानयोग करने हेतु वह स्थान मांग लिया। यही पवित्र स्थान वर्तमान में बद्रीविशाल के नाम से सर्वविदित है।

विष्णु पुराण में इस क्षेत्र से संबंधित एक अन्य कथा है, जिसके अनुसार धर्म के दो पुत्र हुए- नर तथा नारायण, जिन्होंने धर्म के विस्तार हेतु कई वर्षों तक इस स्थान पर तपस्या की थी। अपना आश्रम स्थापित करने के लिए एक आदर्श स्थान की तलाश में वे वृद्ध बद्री, योग बद्री, ध्यान बद्री और भविष्य बद्री नामक चार स्थानों में घूमे। अंततः उन्हें अलकनंदा नदी के पीछे एक गर्म और एक ठंडा पानी का चश्मा मिला, जिसके पास के क्षेत्र को उन्होंने बद्री विशाल नाम दिया। यह भी माना जाता है कि व्यास जी ने महाभारत इसी जगह पर लिखी थीऔर नर-नारायण ने ही क्रमशः अगले जन्म में क्रमशः अर्जुन तथा कृष्ण के रूप में जन्म लिया था। महाभारतकालीन एक अन्य मान्यता यह भी है कि इसी स्थान पर पाण्डवों ने अपने पितरों का पिंडदान किया था। इसी कारण से बद्रीनाथ के ब्रम्हाकपाल क्षेत्र में आज भी तीर्थयात्री अपने पितरों का आत्मा का शांति के लिए पिंडदान करते हैं।


 आचार्य दिनेश पाण्डेय (मुम्बई & उत्तराखण्ड)


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