श्रावण (शौर्य) मास 17 जुलाई 2023 से प्रारंभ
श्रावण महीने में भगवान जगतगुरु
भोलेनाथ शिवजी का विधि पूर्वक पूजा- अर्चना एवं पार्थिवशिव पूजन करने से
(मनवांछित) मनोकामना अवश्य ही पूर्ण होती हैं। चन्द्रमास के अनुसार श्रावण माह 04 जुलाई 2023 से प्रारंभ हो
गया है।
देवभूमि उत्तराखंड आदि कुछ
क्षेत्रों में महीने का आरंभ शौर्य मास के अनुसार अर्थात जब सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है तब माना जाता है
इस वर्ष सूर्य मिथुन राशि से कर्क राशि में प्रवेश 17 जुलाई 2023 को करेंगे और इसी दिन से श्रावण माह प्रारंभ हो जाएगा इसी
दिन कर्क संक्रांति हरेला पर्व भी उत्तराखंड में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।
श्रावण माह का पहला सोमवार 17 जुलाई 2023 को
श्रावण माह का दूसरा सोमवार 24 जुलाई 2023 को
श्रावण माह का तीसरा सोमवार 31 जुलाई 2023 को
श्रावण माह का चौथा सोमवार 07 अगस्त 2023 को
श्रावण माह का पांचवा सोमवार 14 अगस्त 2023 को
श्रावण मास के महीने के संबंध में एक प्रचलित की
मान्यता है कि प्राचीन समय में जगत जननी माता सती ने अपने पिता दक्ष के हवन कुंड
में अपनी देह त्याग दी थी और इसके बाद जगत जननी माता देवी ने पर्वत राज हिमालय के
यहां पार्वती के रूप में जन्म लिया था माता पार्वती ने शिवजी को फिर पुन: पति रूप
में प्राप्त करने के लिए श्रावण माह में ही कठोर जब तक किया जगत जननी माता पार्वती
की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर जगतगुरु भगवान शिवजी ने माता पार्वती की मनोकामना
पूर्ण की और माता पार्वती से विवाह कर लिया। इसी
वजह से शिव जी को श्रावण माह विशेष
प्रिय माना जाता है।
पार्थिव शिवलिंग पूजा की महिमा
तदनन्तर ऋषियों के पूछने पर किस कामना की पूर्तिके लिये कितने पार्थिव शिवलिंगों की पूजा करनी चाहिये इस विषय का वर्णन कर के सूतजी बोले - महर्षियो पार्थिव शिवलिंगों की पूजा कोटि - कोटि यज्ञों का फल देने वाली है। कलियुग में लोगों के लिये शिवलिंग - पूजन जैसा श्रेष्ठ दिखायी देता है वैसा दूसरा कोई साधन कोई अन्य नहीं है - यह समस्त शास्त्रों का निश्चित सिद्धान्त है। शिवलिंग भोग और मोक्ष देने वाला है। शिवलिंग तीन प्रकारके कहे गये हैं - उत्तम , मध्यम और अधम। जो चार अंगुल ऊँचा और देखने में सुन्दर हो तथा वेदीसे युक्त हो उस शिवलिंग को शास्त्रज्ञ महर्षियों ने उत्तम कहा है। उससे आधा, मध्यम, और उससे आधा, अधम माना गया है। इस तरह तीन प्रकार के शिवलिंग कहे गये हैं जो उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा विलोम संकर - कोई भी क्यों न हो, वह अपने अधिकार के अनुसार वैदिक अथवा तान्त्रिक मन्त्र से सदा आदर पूर्वक शिवलिंग की पूजा करे। ब्राह्मणो ! महर्षियो ! अधिक कहने से क्या लाभ? शिवलिंग का पूजन करने में स्त्रियों का तथा अन्य सब लोगों का भी अधिकार है। द्विजों के लिये वैदिक पद्धति से ही शिवलिंग की पूजा करना श्रेष्ठ है परंतु अन्य लोगों के लिये वैदिक करने की सम्मति नहीं है। वेदज्ञ द्विजों को वैदिक मार्ग से ही पूजन करना चाहिये, अन्य मार्गसे नहीं - यह भगवान् शिवका कथन है। दधीचि और गौतम आदि के शाप से जिनका चित्त दग्ध हो गया है उन द्विजों की वैदिक कर्म में श्रद्धा नहीं होती। जो मनुष्य वेदों तथा स्मृतियों में कहे हुए सत्कर्मो की अवहेलना कर के दूसरे कर्म को करने लगता है उसका मनोरथ कभी सफल नहीं होता। इस प्रकार विधिपूर्वक भगवान् शंकर का नैवेद्यान्त पूजन करके उनकी त्रिभुवनमयी आठ मूर्तियों का भी वहीं पूजन करे। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा तथा यजमान - ये भगवान् शंकरकी आठ मूर्तियाँ कही गयी हैं।इन मूर्तियों के साथ साथ शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, ईश्वर, महादेव तथा पशुपति – इन नामों की भी अर्चना करे। तदनन्तर चन्दन, अक्षत और बिल्वपत्र लेकर वहाँ ईशान आदि के क्रम से भगवान् शिवके परिवारका उत्तम भक्तिभाव से पूजन करे। ईशान, नन्दी, चण्ड, महाकाल, भृगी, वृष, स्कन्द, कपर्दीश्वर, सोम तथा शुक्र - ये दस शिव के परिवार हैं जो क्रमशः ईशान आदि दसों दिशाओं में पूजनीय हैं। तत्पश्चात् भगवान् शिव के समक्ष वीरभद्र का और पीछे कीर्तिमुख का पूजन कर के विधि पूर्वक ग्यारह रुद्रों की पूजा करे। इसके बाद पंचाक्षर मन्त्रका जप कर के शतरुद्रिय स्तोत्र का नाना प्रकार की स्तुतियों का तथा शिव पंचांग का पाठ करे। तत्पश्चात् परिक्रमा और नमस्कार कर के शिवलिंग का विसर्जन करे। इस प्रकार मैंने शिवपूजन की सम्पूर्ण विधिका आदरपूर्वक वर्णन किया। रात्रि में देवकार्य को सदा उत्तराभिमुख होकर ही करना चाहिये। इसी प्रकार शिवपूजन भी पवित्रभाव से सदा उत्तराभिमुख होकर ही करना उचित है। जहाँ शिवलिंग स्थापित हो उससे पूर्वदिशा का आश्रय लेकर नहीं बैठना या खड़ा होना चाहिये क्योंकि वह दिशा भगवान् शिवके आगे या सामने पड़ती है (इष्टदेवका सामना रोकना ठीक नहीं) । शिवलिंग से उत्तरदिशा में भी न बैठे क्योंकि उधर भगवान् शंकरका वामांग है जिसमें शक्तिस्वरूपा देवी उमा विराजमान हैं। पूजकको शिवलिंग से पश्चिम दिशामें भी नहीं बैठना चाहिये क्योंकि वह आराध्यदेवका पृष्ठभाग ( पीछेकी ओर से पूजा करना उचित नहीं है )। अत : अवशिष्ट दक्षिणदिशा ही ग्राह्य है। उसीका आश्रय लेना चाहिये । तात्पर्य यह कि शिवलिंग से दक्षिणदिशा में उत्तराभिमुख होकर बैठे और पूजा करे । विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह भस्मका त्रिपुण्ड्र लगाकर रुद्राक्षकी माला लेकर तथा बिल्वपत्र का संग्रह करके ही भगवान् शंकर की पूजा करे इनके बिना नहीं। मुनिवरो ! शिवपूजन आरम्भ करते समय यदि भस्म न मिले तो मिट्टी से भी ललाटमें त्रिपुण्ड्र अवश्य कर लेना चाहिये । जो शिव कथा को पढ़ता है अथवा श्रवण करता है वह परम पवित्र शिव धाम को प्राप्त होता है।
(शिवपुराण अध्याय २१-२२)
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