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खतड़वा 16 सितम्बर 2024 कुमाऊं का अनोखा लोक पर्व

खतड़वा: कुमाऊं का अनोखा लोक पर्व

उत्तराखंड का कुमाऊं क्षेत्र अपने समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर और अनूठे लोक उत्सवों के लिए जाना जाता है। कुमाऊं के लोक जीवन में प्रकृति और पारंपरिक रीति-रिवाजों का गहरा संबंध है, जो वहां के पर्वों में झलकता है। इनमें से एक प्रमुख और विशिष्ट पर्व है खतड़वा, जो मुख्य रूप से कृषि और प्रकृति से जुड़ा है। इस पर्व का आयोजन विशेष रूप से शरद ऋतु की शुरुआत में किया जाता है, जब मानसून समाप्त होता है और किसान नई फसलों की तैयारी में जुट जाते हैं।

खतड़वा का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व

खतड़वा पर्व का इतिहास अत्यंत पुराना है और इसे कुमाऊं क्षेत्र की एक प्राचीन परंपरा माना जाता है। इस पर्व का संबंध कृषि और पशुपालन से जुड़ा हुआ है। यह समय वह होता है जब बारिश खत्म हो चुकी होती है और खेतों में कामकाज की तैयारियां जोरों पर होती हैं। इसके साथ ही, किसान पशुधन के स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए विभिन्न अनुष्ठान करते हैं।

खतड़वा का मुख्य उद्देश्य किसानों द्वारा पशुओं को कीटाणुओं और बीमारियों से बचाना है। इस पर्व को मनाने के पीछे यह मान्यता है कि अग्नि के माध्यम से पशुओं को हानिकारक कीटों से बचाया जा सकता है। यह पर्व प्रकृति और मानव जीवन के बीच के संबंध को दर्शाता है, जहां लोग अपनी फसल और पशुधन को सुरक्षित रखने के लिए अनुष्ठान करते हैं।

खतड़वा का ऐतिहासिक संबंध

पूर्वी कुमाऊँ में खतड़वा को 'गैत्यार' भी कहा जाता है किन्तु गै की जीत की जगह बद्रीदत्त पांडे जी ने कुमाऊँ का इतिहास में गैड़ा की जीत लिखा है कुमाऊं के अनेक क्षेत्रों में इसे भिन्न - भिन्न रूप में मनाया जाता है । इसके लिए वहां के युवक किसी ऊचे टीले पर घास - फूस की झाडियां काट कर एकत्र करते हैं तथा सायंकाल के समय घास - फूस की झाडियां पर आग लगा दी जाती है जलते हुए खतडुवा के चारों ओर उछलते - कूदते हुए छड़ियों से मारते है और पूरा जल जाने पर लम्बी कूदें लगा कर उसे लांघते है। और हर्षोल्लास के साथ यह गीत गाया जाता है- गैड़ा कि जीतखतडुवे की हारखतुड़ लागो धारै धार गै मेरी स्योलखतड़ पड़ो भ्योल। इसके बाद गांव के सभी जन इस ऋतु विशेष के फल ककड़ी (खीरा)  को बांट कर खाते है । परन्तु पशुचारक वर्ग में इस ककड़ी (खीरा) को पशुओं को बांधने वाले खूटे (दौंणी) पर मार कर तोड़े जाते है अंत में जलते हुए खतडुवा को बुझाने में प्रयुक्त होने वाली छड़ियों को जला कर पशुओं को बांधने वाले स्थान पर घुमाया जाता है । ऐसा करने के पीछे यह मान्यता है कि पशु रोग और उन्हें हानी पहुंचाने वाली दुष्ट शक्तियां का नाश हो जाये।


कुमाऊं कुछ क्षेत्रों में 'पुल्यानामक घास के दो पुतले बनाते हैं जो बुड्ढा - बुढिया कहे जाते हैं। सायंकाल के समय चीड़ के छिलकों (फाड़ी हुई बत्तियों) की मशालें जला कर वहां पहुंचते है तथा उनसे उसे एकत्रित घास - फूस के पुतले पर आग लगा कर हर्षोल्लास के साथ उसके चारों ओर नाचते कूदते हैं । अन्त में अग्नि के शान्त हो जाने पर उसकी भस्म को लेकर घरों को लौटते हैं तथा उसका घर के सभी सदस्यों के माथे पर टीका लगाया जाता है । इसके सम्बन्ध में वहां के लोगों में ऐसी मान्यता है कि इसे लगाने से भूत - प्रेत आदि दुष्टात्माएं व्यक्ति के निकट नहीं आती हैं। वे इसे देखकर दूर से ही पलायन कर जाती हैं।
किन्हीं क्षेत्रों में बच्चों द्वारा तीन - चार दिन पहले घास के मूढ़े को मोड़कर एक बुढा और कांस के फूलों की मानवाकार बूढ़ी बना कर उनके गले में फूलों की माला डालकर घर के पास गोबर के ढेर में आरोपित कर देते हैं । खतडुवा के दिन शाम को बूढे को उखाड़ कर और चारों ओर घुमा कर छत पर फेंक दिया जाता है तथा बूढी को खतडुवे के साथ जला दिया जाता है। बूढ़ी की राख को एक दुसरे के माथे पे लगाया जाता है और पशुओं के माथे में भी लगाया जाता हैं

कुछ लोग इस अवसर पर गाये जाने वाले हर्षोल्लास के गीत की शब्दावली- " गैड़ा कि जीतखतडुवे की हारखतुड़ लागो धारै धार गै मेरी स्योलखतड़ पड़ो भ्योल ।"  के आधार पर इसे कुमाउंनी सेना का गढ़वाली सेना के ऊपर जीत के प्रतीक के रूप में मानते हैं। इस युद्ध में कुमाउंनी सेना का नेतृत्व गैड़ासिंह या यहां की गैड़ा जाति का कोई क्षत्रिय वीर कर रहा था तथा गढ़वाल की सेना का खतड़ सिंह कर रहा था इसमें गैडा सिंह ने खतड़ सिंह को पराजित कर गढ़वाली सेना को पीछे हटने के लिए विवश कर दिया था। कहीं - कहीं गैंडा की जीतके स्थान परगाई कि जीत पद का प्रयोग भी सुना जाता है। तदनुसार इसे इस रूप में व्याख्यायित किया जाता है कि चन्दों के ध्वज में गाय का चिह्न होने से इसमें इस विजय को गाई गाय) की जीत कहा गया है। अट्किंसन (जि . भा . पृ 0 871-72) के अनुसार गैड़ा द्वारा गढ़वाली सेना के विरुद्ध उसकी इस विजय का यह समाचार राजा को पर्वत शिखरों पर पहले से ही इस उद्देश्य से एकत्रित घासफूस पर आग लगाकर दिया गया था। उत्तराखण्ड (1992 - 49 ) में प्रकाशित एक लेख में कहा गया है कि यह युद्ध चम्पावत के राजा रुद्रचन्द के पुत्र लक्ष्मण चन्द (उर्फ लक्ष्मीचन्द) तथा गढ़वाल के राजा मानशाह के बीच 1565 में हुआ था। मदन चन्द्र भट्ट (1986 - 8 के अनुसार 1608) किन्तु इतिहास इस विषय में सर्वथा मौन है।

खतड़वा की परंपराएँ और अनुष्ठान 

खतड़वा पर्व के दौरान कुमाऊं के गाँवों में कई प्रकार के अनुष्ठान और परंपराएँ निभाई जाती हैं। इस दिन ग्रामीण लोग मिलकर गाँव के बीचों-बीच या किसी खुले स्थान पर एक विशाल आग जलाते हैं, जिसे "खतड़वा" कहा जाता है। यह आग प्रतीकात्मक रूप से कीटाणुओं और हानिकारक कीड़ों के विनाश का प्रतीक होती है।

इस पर्व में बच्चे और युवा विशेष रूप से उत्साहित होते हैं। वे लकड़ियों और सूखी घास को इकट्ठा कर इस अग्नि को प्रज्वलित करते हैं। जैसे ही आग जलती है, लोग खुशी से नाचते-गाते हैं और "खतड़वा, खतड़वा, जले खतड़वा" के पारंपरिक गीत गाते हैं। यह गीत वातावरण में उत्साह भर देता है और लोगों के बीच एकजुटता की भावना को प्रकट करता है।

अग्नि प्रज्वलन के बाद गाँव के लोग अपने पशुधन की देखभाल के लिए विभिन्न उपाय करते हैं। पशुओं को इस दिन विशेष रूप से सजाया जाता है और उनकी पूजा की जाती है। कई स्थानों पर, पशुओं को खतड़वा की अग्नि के चारों ओर घुमाया जाता है ताकि उन्हें बीमारियों से बचाया जा सके।

फसल और कृषि से संबंध

खतड़वा पर्व का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू फसलों और कृषि से जुड़ा हुआ है। यह पर्व मानसून के बाद और फसलों की बुवाई के पहले मनाया जाता है। इसलिए, इसे कृषि के लिए एक महत्वपूर्ण समय माना जाता है। इस समय किसान अपने खेतों की सफाई और नई फसलों की तैयारी करते हैं। खतड़वा पर्व के दौरान किए गए अनुष्ठान इस बात की पुष्टि करते हैं कि यह समय फसल सुरक्षा और उसकी समृद्धि के लिए उपयुक्त है।

कुमाऊं के ग्रामीण समाज में कृषि और पशुपालन मुख्य आजीविका के साधन हैं, और इसी कारण खतड़वा पर्व का महत्व और भी बढ़ जाता है। यह पर्व किसानों को उनके खेतों और पशुओं के प्रति जागरूक करता है और उन्हें प्राकृतिक आपदाओं और कीटों से बचाने के लिए प्रेरित करता है।

सामाजिक और सांस्कृतिक एकजुटता

खतड़वा पर्व का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू है सामाजिक एकजुटता और सामुदायिक भावना का प्रबल होना। इस पर्व के दौरान सभी गाँववासी मिलकर इस अनुष्ठान में भाग लेते हैं, जिससे आपसी संबंध और भाईचारा मजबूत होता है। गाँव के छोटे बच्चे, युवा और बुजुर्ग सभी इस पर्व में सक्रिय रूप से हिस्सा लेते हैं। यह पर्व लोगों को एक-दूसरे के साथ समय बिताने और सामूहिकता की भावना को प्रकट करने का अवसर देता है।

खतड़वा का आयोजन गाँव के बीचों-बीच किया जाता है, जहाँ लोग सामूहिक रूप से एकत्र होते हैं। यहाँ गीत-संगीत, नृत्य और मनोरंजन का माहौल होता है। यह समय गाँव में उत्सव का माहौल लाता है और लोगों के बीच खुशी और उल्लास का संचार करता है। खतड़वा के अवसर पर लोग एक-दूसरे के घर जाते हैं और मिलजुल कर इस पर्व को मनाते हैं।

पर्यावरण और प्रकृति का संरक्षण

खतड़वा पर्व के पीछे एक और महत्वपूर्ण संदेश है – पर्यावरण और प्रकृति का संरक्षण। यह पर्व हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने का संदेश देता है। गाँववासी इस दिन गाँव के आस-पास के क्षेत्रों की सफाई करते हैं और अपने पशुधन की देखभाल करते हैं।

इसके साथ ही, इस पर्व के दौरान अग्नि का उपयोग कीटाणुओं और कीटों को नष्ट करने के लिए किया जाता है। यह पारंपरिक ज्ञान इस बात को दर्शाता है कि हमारे पूर्वजों ने कैसे प्राकृतिक संसाधनों और पारिस्थितिकी के साथ संतुलन बनाकर अपने जीवन को सुरक्षित रखा।

आधुनिक संदर्भ में खतड़वा

आज के आधुनिक युग में, जब प्रौद्योगिकी और शहरीकरण तेजी से बढ़ रहा है, खतड़वा जैसे पारंपरिक पर्व का महत्व और भी बढ़ जाता है। यह पर्व हमें हमारे सांस्कृतिक और पर्यावरणीय धरोहरों की याद दिलाता है और हमारे पूर्वजों के पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित करने का संदेश देता है।

हालांकि समय के साथ खतड़वा जैसे लोक पर्वों के आयोजन में कुछ बदलाव आए हैं, लेकिन इसका मूल उद्देश्य और महत्व आज भी वही है। आज भी कुमाऊं के कई गाँवों में यह पर्व उत्साहपूर्वक मनाया जाता है, जहाँ लोग अपने पारंपरिक रीति-रिवाजों को निभाते हैं और प्रकृति के साथ अपने संबंधों को पुनः स्थापित करते हैं।

निष्कर्ष

खतड़वा कुमाऊं का एक महत्वपूर्ण लोक पर्व है, जो कृषि, पशुपालन, और प्रकृति के संरक्षण से जुड़ा हुआ है। यह पर्व न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि पर्यावरणीय दृष्टि से भी इसका महत्व अत्यधिक है। खतड़वा हमें यह सिखाता है कि कैसे हमारे पूर्वजों ने प्रकृति के साथ तालमेल बैठाकर अपने जीवन को सुरक्षित और समृद्ध बनाया।

यह पर्व हमें समाज में एकजुटता, भाईचारे, और पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित रखने का संदेश देता है। खतड़वा का आयोजन हमें हमारे सांस्कृतिक मूल्यों और प्रकृति के प्रति हमारी जिम्मेदारियों को समझने का अवसर प्रदान करता है।

 आचार्य दिनेश पाण्डेय शास्त्री (मुम्बई & उत्तराखण्ड)


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