ब्रह्मा-विष्णु युद्ध शिव महापुराण कथा
नंदिकेश्वर बोले-पूर्व काल में श्रीविष्णु अपनी पत्नी श्री लक्ष्मी जी के साथ शेष-शय्या पर शयन कर रहे थे। तब एक बार ब्रह्माजी वहां पहुंचे और विष्णुजी को पुत्र कहकर पुकारने लगे - पुत्र उठो ! मैं तुम्हारा ईश्वर तुम्हारे सामने खड़ा हूं।
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यह सुनकर विष्णुजी को क्रोध आ गया। फिर भी शांत रहते हुए वे बोले-पुत्र! तुम्हारा कल्याण हो। कहो अपने पिता के पास कैसे आना हुआ? यह सुनकर ब्रह्माजी कहने लगे- मैं तुम्हारा रक्षक हूं। सारे जगत का पितामह हूं। सारा जगत मुझमें निवास करता है। तू मेरी नाभि कमल से प्रकट होकर मुझसे ऐसी बातें कर रहा है। इस प्रकार दोनों में विवाद होने लगा। तब वे दोनों अपने को प्रभु कहते-कहते एक-दूसरे का वध करने को तैयार हो गए। हंस और गरुड़ पर बैठे दोनों परस्पर युद्ध करने लगे। ब्रह्माजी के वक्षस्थल में विष्णुजी ने अनेकों अस्त्रों का प्रहार करके उन्हें व्याकुल कर दिया। इससे कुपित हो ब्रह्माजी ने भी पलटकर भयानक प्रहार किए। उनके पारस्परिक आघातों से देवताओं में हलचल मच गई। वे घबराए और त्रिशूलधारी भगवान शिव के पास गए और उन्हें सारी व्यथा सुनाई। भगवान शिव अपनी सभा में उमा देवी सहित सिंहासन पर विराजमान थे और मंद-मंद मुस्करा रहे थे।
शिव निर्णय
महादेव जी बोले-पुत्रो! मैं जानता हूं कि तुम ब्रह्मा और विष्णु के परस्पर युद्ध से बहुत दुखी हो। तुम डरो मत, मैं अपने गणों के साथ तुम्हारे साथ चलता हूं। तब भगवान शिव अपने नंदी पर आरूढ़ हो, देवताओं सहित युद्धस्थल की ओर चल दिए। वहां छिपकर वे ब्रह्मा-विष्णु के युद्ध को देखने लगे। उन्हें जब यह ज्ञात हुआ कि वे दोनों एक-दूसरे को मारने की इच्छा से माहेश्वर और पाशुपात अस्त्रों का प्रयोग करने जा रहे हैं तो वे युद्ध को शांत करने के लिए महाअग्नि के तुल्य एक स्तंभ रूप में ब्रह्मा और विष्णु के मध्य खड़े हो गए। महाअग्नि के प्रकट होते ही दोनों के अस्त्र स्वयं ही शांत हो गए। अस्त्रों को शांत होते देखकर ब्रह्मा और विष्णु दोनों कहने लगे कि इस अग्नि स्वरूप स्तंभ के बारे में हमें जानकारी करनी चाहिए। दोनों ने उसकी परीक्षा लेने का निर्णय लिया। भगवान विष्णु ने शूकर रूप धारण किया और उसको देखने के लिए नीचे धरती में चल दिए। ब्रह्माजी हंस का रूप धारण करके ऊपर की ओर चल दिए। पाताल में बहुत नीचे जाने पर भी विष्णुजी को स्तंभ का अंत नहीं मिला। अतः वे वापस चले आए। ब्रह्माजी ने आकाश में जाकर केतकी का फूल देखा। वे उस फूल को लेकर विष्णुजी के पास गए। विष्णु ने उनके चरण पकड़ लिए। ब्रह्माजी के छल को देखकर भगवान शिव प्रकट हुए। विष्णुजी की महानता से शिव प्रसन्न होकर बोले- हे विष्णुजी! आप सत्य बोलते हैं। अतः मैं आपको अपनी समानता का अधिकार देता हूं।
ब्रह्मा का अभिमान भंग
नंदिकेश्वर बोले-महादेव जी ब्रह्माजी के छल पर अत्यंत क्रोधित हुए। उन्होंने अपने त्रिनेत्र (तीसरी आंख) से भैरव को प्रकट किया और उन्हें आज्ञा दी कि वह तलवार से ब्रह्माजी को दंड दें। आज्ञा पाते ही भैरव ने ब्रह्माजी के बाल पकड़ लिए और उनका पांचवां सिर काट दिया। ब्रह्माजी डर के मारे कांपने लगे। उन्होंने भैरव के चरण पकड़ लिए तथा क्षमा मांगने लगे। इसे देखकर श्रीविष्णु ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि आपकी कृपा से ही ब्रह्माजी को पांचवां सिर मिला था। अतः आप इन्हें क्षमा कर दें। तब शिवजी की आज्ञा पाकर ब्रह्मा को भैरव ने छोड़ दिया। शिवजी ने कहा तुमने प्रतिष्ठा और ईश्वरत्व को दिखाने के लिए छल किया है। इसलिए मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुम सत्कार, स्थान व उत्सव से विहीन रहोगे। ब्रह्माजी को अपनी गलती का पछतावा हो चुका था। उन्होंने भगवान शिव के चरण पकड़कर क्षमा मांगी और निवेदन किया कि वे उनका पांचवां सिर पुनः प्रदान करें। महादेव जी ने कहा - जगत की स्थिति को बिगड़ने से बचाने के लिए पापी को दंड अवश्य देना चाहिए, ताकि लोक-मर्यादा बनी रहे। मैं तुम्हें वरदान देता हूं कि तुम गों के आचार्य कहलाओगे और तुम्हारे बिना यज्ञ पूर्ण न होंगे।
फिर उन्होंने केतकी के पुष्प से कहा-अरे दुष्ट केतकी पुष्प! अब तुम मेरी पूजा के अयोग्य रहोगे। तब केतकी पुष्प बहुत दुखी हुआ और उनके चरणों में गिरकर माफी मांगने लगा। तब महादेव जी ने कहा- मेरा वचन तो झूठा नहीं हो सकता। इसलिए तू मेरे भक्तों के योग्य होगा। इस प्रकार तेरा जन्म सफल हो जाएगा। बोलो शिव शंकर भगवान की जय
शिव महापुराण - विद्धेश्वर संहिता, आठवां अध्याय
आचार्य दिनेश पाण्डेय शास्त्री (मुम्बई & उत्तराखण्ड)
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