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तुलसी विवाह – शास्त्रीय एवं ज्योतिषीय निर्णय- 3 नवम्बर 2025

 


तुलसी विवाह – शास्त्रीय एवं ज्योतिषीय निर्णय- 3 नवम्बर 2025

कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि (हरिप्रबोधिनी एकादशी) को प्रबोधोत्सव के रूप में मनाया जाता है। शास्त्रों के अनुसार इसी दिन अथवा इसके पश्चात् के चार दिनों — द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा — में किसी भी विवाहयोग्य नक्षत्र में श्री तुलसी विवाह संपन्न किया जा सकता है।

इस विषय में ‘धर्मसिन्धु’ तथा ‘निर्णयसिन्धु’ ग्रंथों में निम्न शास्त्रवाक्य विद्यमान है—


"एकादश्यादि पूर्णिमान्ते यत्र क्वापि दिने कार्तिक शुक्लान्तर्गत-विवाह-नक्षत्रेषु वा विधानादनेक कालत्वं तथापि पारणाहे प्रबोधोत्सव कर्मणा सह।"


अर्थात् — एकादशी से पूर्णिमा तक, कार्तिक शुक्ल पक्ष के अंतर्गत किसी भी शुभ विवाह नक्षत्र में तुलसी विवाह किया जा सकता है, किंतु प्रबोधोत्सव एवं पारणा के दिन इसका विशेष महत्व माना गया है।


तुलसी विवाह का समयनिर्णय (काल-विचार)

‘धर्मसिन्धुकार’ के अनुसार तुलसी विवाह का सर्वश्रेष्ठ समय एकादशी पारणा के दिन की पूर्वरात्रि (रात्रि के प्रथम भाग) में माना गया है।

ग्रंथवचन—

"रात्रि प्रथमभागे प्रशस्तः।"

अर्थ — तुलसी विवाह रात्रि के प्रथम प्रहर में करने से विशेष पुण्यफल की प्राप्ति होती है।


यदि उस रात्रि में विवाह नक्षत्र न हो, तो दिन के समय प्राप्त नक्षत्र में या नक्षत्र के अभाव में भी तुलसी विवाह पारणा दिवस पर किया जा सकता है।


वर्ष 2025 का ज्योतिषीय निर्णय

इस वर्ष 2 नवम्बर 2025 को कार्तिक शुक्ल एकादशी है, जो हरिप्रबोधिनी एकादशी तथा प्रबोधोत्सव के रूप में प्रसिद्ध है।

उस दिन की पूर्वरात्रि में ‘उत्तर भाद्रपदा’ नक्षत्र विद्यमान रहेगा, जो विवाह हेतु शुभ नक्षत्रों में सम्मिलित है।

अतः 2 नवम्बर 2025 (रविवार) को तुलसी विवाह शास्त्रविहित रूप से मान्य है।


निषिद्ध योग एवं तिथियों का विचार

कुछ शास्त्रकारों ने निम्न योगों में तुलसी दल का स्पर्श, तोड़ना तथा तुलसी-विवाह का निषेध माना है —


"वैधृतौ च व्यतीपाते भौम-भार्गव-भानुषु ।

पर्वद्वये च संक्रान्तौ द्वादश्यां सूतके द्वयोः ॥" (निर्णयसिन्धु)


अर्थात् — वैधृति योग, व्यतीपात योग, मंगल, शुक्र एवं रविवार, संक्रांति, द्वादशी तिथि तथा सूतक में तुलसी-दल का स्पर्श निषिद्ध है।


चूंकि 2 नवम्बर 2025 रविवार का दिन है, अतः निषेधवाक्य के अनुसार उस दिन तुलसी-दल-स्पर्श एवं विवाह से परहेज़ उचित होगा।


अंतिम निर्णय

2 नवम्बर 2025 (रविवार) —प्रबोधोत्सव तिथि; रात्रि में उत्तर भाद्रपदा नक्षत्र; शास्त्रीय रूप से संभव, परंतु वारनिषेध के कारण उपयुक्त नहीं।

3 नवम्बर 2025 (सोमवार)— प्रदोषकाल में रेवती नक्षत्र विद्यमान; वार, नक्षत्र एवं योग से पूर्णतया शुभ संयोग।


अतः शास्त्रसम्मत निर्णय

श्री तुलसी-विवाह उत्सव वर्ष 2025 में सोमवार, 3 नवम्बर को करना सर्वथा शास्त्रसम्मत एवं शुभफलदायक होगा।

इस दिन तुलसी विवाह करने से विवाह-सौभाग्य, संतान-सुख, गृह-शांति तथा लक्ष्मी-कृपा की प्राप्ति होती है।


तुलसी विवाह महिमा

पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में कहा गया है कि एकादशी-माहात्म्य के अनुसार श्री हरिप्रबोधिनी वानि देबोत्थान एकादशी का व्रत करने से एक हजार अश्वमेध यज्ञ तथा सौ राजसूय यज्ञों के बराबर फल मिलता है। इस परम पुण्य प्रदायक एकादशी के विधिवत व्रत से सब पाप नष्ट और भस्म हो जाते हैं, इस एकादशी के दिन जो भी भक्त श्रद्धा के साथ जो कुछ भी जप-तप, स्नान-दान, होम करते हैं, वह सब अक्षय फलदायक हो जाता है। कहते हैं कि समस्त सनातन धर्मी का आध्यात्मिक कर्तव्य है कि देवउठवनी एकादशी का व्रत अवश्य करें। इस व्रत को करने वाला दिव्य फल प्राप्त करता है।


तुलसी विवाह की कथा

शास्रों के अनुसार जालंधर नामक एक बहुत ही भयंकर राक्षस था जिसे की युद्ध में हराना नामुमकिन था सभी देवतागण उनसे खौफ खाते थे और वह बहुत शक्तिशाली था जिसकी वजह से उसने पूरे संसार में अत्याचार कर रखा था। और उसकी वीरता का राज उसकी धर्मपत्नी बंदा का उसके प्रति पत्नी धर्म का पालन करना था जिस कारणवश वह पूरे विश्व में सर्वविजयी बना हुआ था। जालंधर के अत्याचार के कारणवश सभी देवता भगवान विष्णु के पास सहायता मांगने पहुंचे तब भगवान विष्णु ने देवताओ की मदद करने का फैसला किया। उसके बाद जब जालंधर युद्ध के लिए जा रहे थे तब भगवान विष्णु वृंदा के सतीत्व धर्म को भंग करने के लिए जालंधर का अवतार लेकर उनके पास पहुँच गए। उसके बाद जालंधर युद्ध में हार गया और उनकी मृत्यु हो गयी। उसके बाद उन्हें भगवान विष्णु के उस अवतार के बारे में पता चला तो उन्होंने भगवान विष्णु को श्राप दिया की आप एक पत्थर की मूर्त बन जायेंगे। उसके बाद वह अपनी पति की मृत्यु के पश्चात् उन्ही के साथ सती हो गयी। जहाँ उन्होंने अपने प्राण त्यागे वही पर तुलसी का पौधा उत्पन्न हो गया। उसके बाद भगवान विष्णु ने वृंदा को यह वचन दिया की अगले जन्म में तुम्हारा जन्म तुलसी के रूप में होगा और तुम्हारा विवाह मेरे साथ होगा। इसी वजह से अगले जन्म में भगवान विष्णु ने शालिग्राम के रूप में जन्म लिया और कार्तिक मास की एकादशी के दिन तुलसी माता से विवाह किया।

हिन्दू शास्रों में कहा गया है कि निःसंतान दंपत्ति को जीवन में एक बार तुलसी का विवाह करके कन्यादान का पुण्य अवश्य प्राप्त करना चाहिए क्योंकि तुलसी विवाह करने से कन्यादान के समान पुण्यफल की प्राप्ति होती है। कार्तिक शुक्ल एकादशी पर तुलसी विवाह का विधिवत पूजन करने से भक्तों को मनोवाछित फल की प्राप्ती होती हैं। तुलसी जी कि नियमित पूजा से व्यक्ति को पापों से मुक्ति तथा पुण्य फल में वृद्धि होती है। पूजा पद्धति के अनुसार सभी देवी तथा देवताओं को तुलसी जी अर्पित की जाती है। तुलसी के पौधे को पवित्र और पूजनीय माना गया है। तुलसी विवाह के सुअवसर पर व्रत रखने का बड़ा ही महत्व है।

शास्त्र मान्यता है कि इस दिन भगवान विष्णु 4 माह लंबी निद्रा से जागते हैं. हिंदू धर्म शास्त्र मान्यता अनुसार तुलसी माता का विवाह शालिग्राम के साथ  कराने की परंपरा है ऐसा भी माना जाता है कि इस दिन व्रत करने से एक हजार अश्वमेध यज्ञ करने जितना फल मिलता है। तुलसी विवाह के दिन तुलसी जी और शालीग्राम का विवाह कराने से भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है और भक्त की सभी मनोकामनाएं भी पूरी होती है। तुलसी विवाह के  साथ ही सभी धार्मिक, मांगलिक कार्य प्रारंभ हो जाते हैं

जिस घर में तुलसी होती हैं, वहाँ यम के दूत कभी नहीं जाते। मृत्यु के समय जिसके प्राण मंजरी रहित तुलसी और गंगा जल मुख में रखकर निकल जाते हैं, वह पापों से मुक्त होकर वैकुंठ धाम को प्राप्त होता है। जो मनुष्य तुलसी व आंवलों की छाया में अपने पितरों का श्राद्ध करता है, उसके पितर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।

हरिप्रबोधिनी एकादशी का महत्व

हरिप्रबोधिनी एकादशी का महत्व बहुत अधिक है क्योंकि इसे शुभ कार्यों के आरंभ का प्रतीक माना जाता है। चार महीने की "चतुर्मास" अवधि में भगवान विष्णु योग निद्रा में होते हैं और इस दौरान कोई भी शुभ कार्य जैसे विवाह, गृह प्रवेश आदि नहीं किए जाते। इस एकादशी के दिन विष्णु जी अपनी योग निद्रा से जागते हैं, जिसके कारण इसे "देवोत्थान एकादशी" भी कहा जाता है। यह दिन भक्तों के लिए आध्यात्मिक लाभ प्रदान करने का समय होता है, और विष्णु जी के प्रति समर्पण व्यक्त करने का अवसर होता है।

व्रत विधि और नियम

हरिप्रबोधिनी एकादशी का व्रत बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। व्रत करने वालों को निम्नलिखित विधियों का पालन करना चाहिए:

  1. प्रातःकाल स्नान और पूजा: इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान करें और भगवान विष्णु की पूजा का संकल्प लें। घर को स्वच्छ करें और पूजा स्थल को सुंदर ढंग से सजाएं।

  2. भगवान विष्णु की पूजा: भगवान विष्णु की प्रतिमा या तस्वीर के सामने दीप जलाएं, और तुलसी का पत्ता और पुष्प अर्पित करें। उन्हें फल, मिठाई, और भोग चढ़ाएं। विष्णु सहस्रनाम का जाप करें और "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय" मंत्र का जप करें।

  3. तुलसी पूजन: तुलसी माता की पूजा का विशेष महत्व होता है। तुलसी के पौधे पर जल चढ़ाकर उसके चारों ओर दीपक जलाएं और पूजा करें। तुलसी विवाह का आयोजन करना अत्यंत पुण्यकारी माना जाता है।

  4. दिनभर उपवास: हरिप्रबोधिनी एकादशी के दिन उपवास रखना चाहिए। जो लोग निर्जला व्रत नहीं कर सकते, वे केवल फलाहार का सेवन कर सकते हैं। दिनभर में किसी भी प्रकार का अन्न नहीं खाना चाहिए।

  5. जागरण और भजन कीर्तन: रात में जागरण करते हुए भगवान विष्णु के भजन कीर्तन करें। इससे विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है और मन में शांति और आनंद की अनुभूति होती है।

  6. दूसरे दिन पारण: एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि में किया जाता है। इस दिन ब्राह्मणों को भोजन कराना और उन्हें दक्षिणा देना भी पुण्यकारी होता है।

हरिप्रबोधिनी एकादशी की पौराणिक कथा

पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक समय नारद मुनि ने भगवान विष्णु से पूछा कि हरिप्रबोधिनी एकादशी का महत्व क्या है। तब भगवान विष्णु ने बताया कि यह दिन बहुत ही पवित्र और मंगलकारी है। द्वापर युग में एक समय राजा रुक्मांगद इस व्रत को करने लगे। उनके व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में सुख-समृद्धि का वास हुआ। इस व्रत के प्रभाव से राजा और प्रजा को मोक्ष की प्राप्ति हुई और भगवान विष्णु के आशीर्वाद से उन्हें सभी सुखों की प्राप्ति हुई।

तुलसी विवाह का महत्व

हरिप्रबोधिनी एकादशी के साथ तुलसी विवाह का आयोजन विशेष महत्व रखता है। तुलसी विवाह की परंपरा के अनुसार, तुलसी को भगवान विष्णु के रूप शालिग्राम से विवाह के लिए समर्पित किया जाता है। तुलसी को भगवान विष्णु की परम भक्त और श्रीहरि के वरदान से उत्पन्न शक्ति के रूप में देखा जाता है। भगवान विष्णु की पूजा में तुलसी का अनिवार्य उपयोग होता है, और तुलसी विवाह का आयोजन देवता और भक्त के बीच के रिश्ते को और अधिक सुदृढ़ बनाता है।

तुलसी विवाह का आयोजन इस प्रकार होता है कि एक तरफ तुलसी माता को दुल्हन के रूप में सजाया जाता है और दूसरी ओर भगवान शालिग्राम को दूल्हा के रूप में सजाकर उनका विवाह करवाया जाता है। इस विवाह का उद्देश्य यह है कि इससे जीवन में खुशहाली और समृद्धि का आगमन होता है। यह एक प्रकार से पर्यावरण और प्रकृति के प्रति श्रद्धा प्रकट करने का भी प्रतीक है।

तुलसी विवाह की विधि

तुलसी विवाह की प्रक्रिया कुछ इस प्रकार है:

  1. तुलसी और शालिग्राम का सजावट: तुलसी माता को दुल्हन की तरह सजाया जाता है। शालिग्राम जी को भी एक छोटे मंदिर में रखा जाता है और उनका श्रृंगार किया जाता है।

  2. विवाह मंडप की स्थापना: तुलसी के पौधे के सामने एक छोटा सा मंडप बनाकर उसे सजाया जाता है। वहां पर फल, मिठाई और फूलों का सुंदर सजावट की जाती है।

  3. विवाह विधि: विवाह की तरह ही तुलसी और शालिग्राम का विवाह मंत्रोच्चार के साथ किया जाता है। इसमें परंपरागत रूप से सुहागिन महिलाएं और परिवार के अन्य लोग शामिल होते हैं।

  4. आरती और भजन: विवाह के बाद आरती की जाती है और भगवान विष्णु और तुलसी माता के भजनों का गायन किया जाता है।

  5. प्रसाद वितरण: विवाह के बाद सभी उपस्थित लोगों में प्रसाद का वितरण किया जाता है और इस प्रसाद को खाने से विशेष पुण्य मिलता है।

हरिप्रबोधिनी एकादशी और तुलसी विवाह का आध्यात्मिक लाभ

हरिप्रबोधिनी एकादशी व्रत और तुलसी विवाह करने से आध्यात्मिक लाभ होता है। यह हमारे मन को शांति, संयम और सच्ची भक्ति का मार्ग प्रदान करता है। इस व्रत का पालन करने से व्यक्ति के समस्त पाप नष्ट होते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। तुलसी विवाह का आयोजन करने से भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है, जिससे घर में धन, सुख और समृद्धि का वास होता है।

हरिप्रबोधिनी एकादशी व्रत और तुलसी विवाह का पालन करने से भक्तों के जीवन में सकारात्मकता, शांति, और समृद्धि आती है। यह पर्व केवल धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह प्रकृति के प्रति हमारी श्रद्धा को भी व्यक्त करता है।

 आचार्य दिनेश पाण्डेय शास्त्री 


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