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शिवजी के गणों और पुत्रों सहित उसके नगर में निवास करना


व्यासजी बोले - सर्वज्ञ सनत्कुमारजी ! आपने अनुग्रह करके प्रेमपूर्वक ऐसी अद्भुत और सुन्दर कथा सुनायी है , जो शंकरकी कृपासे ओतप्रोत है । अब मुझे शशिमौलिके उस उत्तम चरित्रके श्रवण करनेकी इच्छा है , जिसमें उन्होंने प्रसन्न होकर बाणासुरको गणाध्यक्षपद प्रदान किया था ।

सनत्कुमारजीने कहा - व्यासजी ! परमात्मा जगतगुरु  भोलेनाथ की उस कथाको जिसमें उन्होंने प्रसन्न होकर बाणासुरको गणनायक बनाया था , आदरपूर्वक आप श्रवण करो । इसी प्रसंगमें महाप्रभु जगतगुरु  भोलेनाथ का वह सुन्दर चरित्र भी आयेगा , जिसमें जगतगुरु  भोलेनाथ ने बाणासुरपर अनुग्रह करके श्रीकृष्णके साथ संग्राम किया था । व्यासजी ! दक्षप्रजापतिकी तेरह कन्याएँ कश्यप मुनिकी पलियाँ थीं । वे सब - की - सब पतिव्रता तथा सुशीला थीं । उनमें दिति सबसे बड़ी थी , जिसके लड़के दैत्य कहलाते हैं । अन्य पत्नियोंसे भी देवता तथा चराचरसहित समस्त प्राणी पुत्ररूपसे उत्पन्न हुए थे । ज्येष्ठ पत्नी दितिके गर्भसे सर्वप्रथम दो महाबली पुत्र पैदा हुए , उनमें हिरण्यकशिपु ज्येष्ठ था और उसके छोटे भाईका नाम हिरण्याक्ष था । हिरण्यकशिपुके चार पुत्र हुए । उन दैत्यश्रेष्ठोंका क्रमशः हाद , अनुह्राद , संह्राद और प्रह्लाद नाम था । उनमें प्रह्लाद जितेन्द्रिय तथा महान् विष्णुभक्त हुए । उनका नाश करनेके लिये कोई भी दैत्य समर्थ न हो सका । प्रह्लादका पुत्र विरोचन हुआ , वह दानियोंमें सर्वश्रेष्ठ था । उसने विप्ररूपसे याचना करनेवाले इन्द्रको अपना सिर ही दे डाला था । उसका पुत्र बलि हुआ । यह महादानी और शिवभक्त था । इसने वामनरूपधारी विष्णुको सारी पृथ्वी दान कर दी थी । बलिका औरस पुत्र बाण हुआ । वह शिवभक्त , मानी , उदार , बुद्धिमान् , सत्यप्रतिज्ञ और सहस्रोंका दान करनेवाला था । उस असुरराजने पूर्वकालमें त्रिलोकीको तथा त्रिलोकाधिपतियोंको बलपूर्वक जीतकर शोणितपुरमें अपनी राजधानी बनाया और वहीं रहकर राज्य करने लगा । उस समय देवगण शंकरकी कृपासे उस शिवभक्त बाणासुरके किंकरके समान हो गये थे । उसके राज्यमें देवताओंके अतिरिक्त और कोई प्रजा दुःखी नहीं थी । शत्रुधर्मका बर्ताव करनेवाले देवता शत्रुतावश ही कष्ट झेल रहे थे । एक समय वह महासुर अपनी सहस्रों भुजाओंसे ताली बजाता हुआ ताण्डवनृत्य करके महेश्वर शिवको प्रसन्न करनेकी चेष्टा करने लगा । उसके उस नृत्यसे भक्तवत्सल शंकर संतुष्ट हो गये । फिर उन्होंने परम प्रसन्न हो उसकी ओर कृपादृष्टिसे देखा । भगवान् शंकर तो सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी , शरणागतवत्सल और भक्तवांछा कल्पतरु ही ठहरे । उन्होंने बलिनन्दन महासुर बाणको वर देनेकी इच्छा प्रकट की । मुने ! बलिनन्दन महादैत्य बाण शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ और परम बुद्धिमान् था । उसने परमेश्वर शंकरको प्रणाम करके उनकी स्तुति की ( और कहा ) । बाणासुर बोला - प्रभो ! आप मेरे रक्षक हो जाइये और पुत्रों तथा गणोंसहित मेरे नगरके अध्यक्ष बनकर सर्वथा प्रीतिका निर्वाह करते हुए मेरे पास ही निवास कीजिये । सनत्कुमारजी कहते हैं - महर्षे ! वह बलिपुत्र बाण निश्चय ही शिवजीकी मायासे मोहमें पड़ गया था , इसीलिये उसने मुक्ति प्रदान करनेवाले दुराराध्य महेश्वरको पाकर भी ऐसा वर माँगा । तब ऐश्वर्यशाली भक्तवत्सल शम्भु उसे वह वर देकर पुत्रों और गणोंके साथ प्रेमपूर्वक वहीं निवास करने लगे ।

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